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कला विशेष: प्राचीन चीन से आधुनिक युग तक सतत बहती कला धारा

कलाकार की सोच-दृष्टि सार्वभौमिक होने चाहिए। किसी भी देश के श्रेष्ठ और आदर्श कला में अगर हम कुछ और अच्छाइयां पाते हैं तो उनका अध्ययन हमारी कला को परिष्कृत ही करेगा।
कमल फूल, चित्रकार- यून शाउपींङ  जन्म 1633 ,चीन
कमल फूल, चित्रकार- यून शाउपींङ जन्म 1633 ,चीन "साभार - द वर्ल्ड ग्रेटेस्ट आर्ट"

विश्व की महान कलाओं में चीन की कला का महत्वपूर्ण स्थान है। चीन हमारा पड़ोसी देश है। वर्तमान समय में राजनीतिक कारणों से दोनों के बीच में चाहे जितनी भी दूरियाँ आ गई हों। लेकिन कला तो सार्वभौमिक होती है। वह है ही सौंदर्य अनुभूति के लिए। कलाकार की सोच-दृष्टि भी सार्वभौमिक होने चाहिए। किसी भी देश के श्रेष्ठ और आदर्श कला में अगर हम कुछ और अच्छाइयां पाते हैं तो उनका अध्ययन हमारी कला को परिष्कृत ही करेगा। ऐतिहासिक तथ्य मौजूद हैं कि विश्व के महान कलाकारों ने विश्व की शास्त्रीय और  लोक कला से प्रेरणा ग्रहण कर अपनी कला शैली का विकास किया है।

चीन की कला का अपनी जनता के सामाजिक जीवन और दर्शन से गहरा जुड़ाव था। चीनी चित्रों में सुन्दर और मृदुल रंगों को प्रतीकात्मक ढंग से इस्तेमाल किया गया है।

चीनी कला के उदाहरण हमें नवप्रस्तर युग से प्राप्त होने लगते हैं। जो कि भारत के समान ही प्रमुख रूप से मिट्टी के पात्रों पर पाये गये हैं। इन पात्रों पर मानव चेहरों, जानवरों और पेड़-पौधों  के रंगीन चित्र आलंकारिक ढंग से सुसज्जित पाये गये हैं। उदाहरण स्वरूप छिङहाए प्रांत की ताथुङ काउन्टी में प्राप्त मिट्टी की नर्तकियों से युक्त रंगीन चिलमचियां। प्राचीन चीनी कला के ये श्रेष्ठ नमूने हैं।

शाङ और चओ राजवंश का शासन काल बसन्त व शरद काल और युद्धरत राज्य काल ( लगभग 16वीं  शताब्दी ई॰पू॰ से 221 ई॰पू॰) माना गया है। इस काल में कांस्य बर्तनों पर सुन्दर सजावटी अलंकरण पाये गये हैं। इसी युद्ध काल में रेशमी कपड़े पर चित्रण कला का उदय हुआ। परम्परागत चीनी चित्रकला की बुनियादी तकनीकी बालों की कूंची से रेखांकन की शैली की शुरुआत इसी समय से हुई।

छिन और हान राजवंशों (221 ई॰पू॰-220 ई॰) के दौरान भित्तिचित्रों का अभूतपूर्व विकास हुआ। जो कि महलों, मंदिरों और कब्रों के भीत पर बनाया जाता था। इसी दौर में पत्थरों को भी तराश कर सुन्दर मूर्तियां बनाई जाने लगीं थीं।

द इमोर्टल गे चंगेंङ सिटिंग आॅन हीज थ्री - लेजेड टोड ,1506-10  , चित्रकार- यीन तांङ, चीन

भारत और चीन के बीच सदियों से प्रगाढ़ मैत्रीपूर्ण संबंध रहा है। इसके पीछे एक मुख्य कारक बौद्ध धर्म दर्शन था। प्राचीन काल में हर्षवर्धन के राज्यकाल में चीनी यात्री हुएनत्सांग और गुप्त काल में फाह्यान भारत आये थे और उन्होंने भारतीय आध्यात्म दर्शन और संस्कृति पर अध्ययन किया था।

सातवीं शताब्दी में तीर्थ यात्री इत्सिंग ने महायान तथा हीनयान का वर्णन किया है कि किस तरह हीन और महायान पंथों के अनुयायी उत्तरी भारत में एक ही विहार में साथ-साथ रहते हैं। उन्होंने लिखा है कि वे उन्हीं विनय-नियमों का आचरण करते हैं और बौद्ध धर्म चार आर्य सत्यों को स्वीकार करते हैं।

वेइ, चिन और उत्तरी व दक्षिणी राजवंशों (220-581) के दौरान चीन में बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ। इस काल में बड़े पैमाने पर चट्टानों के बीच गुफाएँ खोदकर बौद्ध मूर्तियां निर्मित करने और भित्तिचित्र बनाने की प्रथा शुरू हुई। शिनच्याङ की केजल गुफाएँ, कानसू के तुनह्वाङ की गुफाएं , शानशी के ताथुङ की युनकाङ गुफाएँ आदि चीन की विश्व प्रसिद्ध प्राचीन कला निधि है। इन गुफाओं में बने भित्तिचित्र और रंगीन मूर्तियां कला की दृष्टि से बड़े उच्च स्तर की हैं। इस काल के दौरान कई प्रसिद्ध चित्रकारों के नाम उद्घाटित हुए जिनमें कू खाएचि ( 345 - 406) का नाम प्रसिद्ध है। 'विद्वान महिलाएं ' और ' ल्वो नदी की देवी ' शीर्षक चित्र अत्यंत सुन्दर और सजीव हैं। इनसे प्रेरित होकर आज भी चीनी चित्रकार उनकी अनुकृतियाँ बनाते हैं। साभार : चीनी साहित्य और कलाएं , पृष्ठ सं॰ 191

जन्म- 1470 - 1524 चीन , साभार : द वर्ल्ड ग्रेटेस्ट आर्ट

चीनी कला ने स्वेइ, थाङ, पांच राजवंशों और सुङ शासन काल (581-1279) के दौरान बेहतरीन विकास किया। जिससे परम्परागत चीनी चित्रकला की कई शैलियों ने अपने को स्थापित किया।  'बसंत में भ्रमण' शीर्षक चित्र कृति चीनी चित्रकला के इतिहास में प्रसिद्ध कलाकृति है जो भू दृश्य चित्रांकन का श्रेष्ठ उदाहरण है। (साभार-चीनी साहित्य और कलाएँ।)

ऊ ताओचि थाङ वंश मशहूर चित्रकार थे। जो मानवाकृतिमूलक और प्राकृतिक दृश्यों को का चित्रण करने में  बहुत कुशल थे। लोग उन्हें 'चित्रकला का महात्मा' मानने लगे थे। वाङ वेइ ने जल और स्याही से बहुत सुन्दर चित्र बनाए। वे एक कुशल कवि भी थे।

य्वान राजवंश (1271-1368) अपनी असाधारण जल-स्याही और जल रंग माध्यम चित्रण के लिए प्रसिद्ध है। मिङ व छिङ (  1368- 1911) राजकाल के दौरान चीनी चित्रकला में दो प्रवृत्तियां पाई जाती हैं। एक प्रवृत्ति वह जिसमें प्राचीन कला गुरूओं की शैली का अनुकरण किया जाता था। इसके प्रतिनिधि चित्रकार वाङ शिमिन और वाङ च्येन थे। दूसरी प्रवृत्ति में चित्रकार अपने व्यक्तिगत भावनाओं की अभिव्यक्ति पर जोर देते थे। इसका प्रतिनिधित्व श्वी वेई, चू ता और याङचओ की चित्रण शैली में किया जाता था।

लकड़ी के ब्लाक से छाप कर बनाए गए चित्र जो बौद्ध धर्म ग्रंथों में पाये गये हैं चीनी कला के इतिहास में स्वेइ और थाङ राजकाल में बनाए गए।

मिङ और छिङ राजकाल में इस कला ने अभूतपूर्व उन्नति की। इस तरह के छापा चित्रों का उपयोग नाटकों, पौराणिक कथा पुस्तकों और उपन्यासों के प्रासंगिक चित्रों के लिए किया जाता था। साथ ही लोक -कलाकारों की नव वर्ष की रचनाओं और पेशेवर चित्रकारों की विभिन्न प्रकार की रचनाओं में भी चित्रांकन का यह रूप अपना लिया गया। जलरंगों का प्रयोग करते हुए लकड़ी के ब्लाक से छपाई करना चित्रकला का एक विशिष्ट नया रूप था। 

बीसवीं शताब्दी जबकि चीन में क्रांति आंदोलन का समय था। चीनी कला का विकास क्रम रूका नहीं। अलबत्ता सहायक ही रहा और आंदोलन का अनिवार्य रूप से चीन की कला पर असर पड़ा। 

बीसवीं शताब्दी के क्रांतिकारी आंदोलन का प्रभाव अनिवार्य रूप से चीनी कला पर भी पड़ा। 'चार मई 1919 का आन्दोलन 'कला के विकास का भी एक महत्वपूर्ण मोड़बिन्दु था।

महान लेखक लू शुन के प्रोत्साहन से काष्ठ छापा चित्रकारों ने अभूतपूर्व विकास किया और मेहनतकश लोगों के संघर्ष पूर्ण जीवन और उनके अन्याय के विरूद्ध  प्रतिरोध के भावना को अपने काष्ठ छापा चित्रों द्वारा साकार किया। 'चार मई 'आन्दोलन और चीनी लोक गणराज्य की स्थापना का भी चीन की कला पर काफी असर पड़ा। जापानी-आक्रमण -विरोधी युद्ध छिड़ने पर   चीनी कलाकारों ने जनता के संघर्षों और चीनी वीरों का गुणगान करते हुए अनेक श्रेष्ठ कला सृजन किया ।

चित्रकला में व्यंग्य-चित्रों का उदय और विकास हुआ। चीन में तैल -चित्र कला का प्रचलन 16वीं शताब्दी के बाद पाश्चात्य प्रभाव से हुआ। लेकिन इसका विकास चीनी गणराज्य के स्थापना के 30 वर्ष बाद हुआ। ल्यू हाए सू , श्वी पेईहुङस, फाङ श्युनछिन , नी ईते   आदि इस काल के प्रसिद्ध चित्रकार थे ।

चीनी चित्रकला का बुनियादी और विकास 1949 में नये चीन की स्थापना के समय से ही शुरू हुआ। 1953 में परम्परागत चीनी चित्रकला की प्रदर्शनी हुई। जिसमें 200 चित्रकारों की 240 चित्र प्रदर्शित हुए। फिर तो और भी कई कला प्रदर्शनियां होती गई और कलाकारों की सहभागिता होती गईं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुई कि अब परम्परागत चीनी चित्रकला केवल ऊंचे तबके के लोगों के कलात्मक मनोरंजन का साधन नहीं रह गयी, बल्कि उसने मेहनतकश जनमानस के जीवन संघर्षों, भावनाओं और अभिलाषाओं की अभिव्यक्ति को अपना लिया। राजवंशों के समय से चली आ रही विषयवस्तु की सीमाबद्धता समाप्त हो गई।

चीनी चित्रकला परम्परागत और आधुनिक दोनों ही विषयों को लेकर नवीन युग की भावना से अभिव्यक्त की जाने लगी।

आधुनिक काल में चीनी चित्रकला को अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुए। 1980 के दौर के दो युवा कलाकार ल्याङ छाङलिन और ची शू प्रतिभाशाली कलाकार थे।

भू दृश्य चित्र बनाने में चीनी कलाकार अत्यंत दक्ष थे। आधुनिक चित्रकारों ने अपने आस पास के अभभवोनुभव और विश्व को भी अपने चित्रों का विषय बनाया। उन्होंने परम्परागत चीनी कला शैली का अध्ययन कर अपनी विशिष्ट शैली का जन्म दिया। आधुनिक महत्वपूर्ण कलाकार हैं ह्वाङ पिनहुङ, फान थ्यनशओ, फू पाओशी ,चू छीछान आदि फूलों और पक्षियों का चित्रण करने में चीनी कलाकार सिद्धत रहे हैं।

वर्तमान समय में विश्व के अन्य देशों के समान चीनी तैल माध्यम कलाकारों ने भी आधुनिक कला शैली को भी अपनाया है। उन्होंने अपने वैचारिक दृढ़ता को अपने अनुभवों के आधार पर अपने कलाकृतियों मे सामाजिक सवालों उठाने की कोशिश किया है।

(लेखिका डॉ. मंजु प्रसाद एक चित्रकार हैं। आप इन दिनों लखनऊ में रहकर पेंटिंग के अलावा ‘हिन्दी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं।)

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