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RTI क़ानून, हिंदू-राष्ट्र और मनरेगा पर क्या कहती हैं अरुणा रॉय? 

“मौजूदा सरकार संसद के ज़रिये ज़बरदस्त संशोधन करते हुए RTI क़ानून पर सीधा हमला करने में सफल रही है। इससे यह क़ानून कमज़ोर हुआ है।”
Aruna Roy

दो ऐतिहासिक कानूनों, यानी सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम, 2005 और राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम, 2005 के पीछे की प्रेरक शक्ति रहीं अरुणा रॉय इस समय मोदी सरकार को इन दोनों ही क़ानूनों को कमज़ोर करते हुए देख रही हैं। रॉय, रश्मि सहगल के साथ एक साक्षात्कार में लोकतांत्रिक असंतोष की ज़रूरत के बारे में बात करती हैं। इस साक्षात्कार में वह कहती हैं कि भविष्य में असंगठित क्षेत्र के इन श्रमिकों की भूमिका असंतोष के कुछ रूपों को आवाज़ देने में अहम होगी। प्रस्तुत है इस साक्षात्कार का संपादित अंश।

रश्मि सहगल: आपने हाल ही में अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि हम भारत में विरोध करने का अपना अधिकार "खो रहे हैं"। हालांकि, मौजूदा सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले कई लोगों को सख़्त राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद विरोधी क़ानून के तहत बहुत सारे आरोपों का सामना करना पड़ रहा है। तो, क्या आपके कहने का मतलब यही था कि हमने विरोध करने का अपना अधिकार "खो दिया है" ?

अरुणा रॉय: जब तक भारतीय संविधान की मूल संरचना बनी रहेगी, हमारे पास अभिव्यक्ति, असहमति और लोकतांत्रिक विरोध के मौलिक अधिकार होंगे। हो सकता है कि हमारे पास एक ऐसी सरकार हो, जो इन अधिकारों का सम्मान नहीं करती हो और इन अधिकारों को वह लगातार कमजोर करती हो, जिस तरह कि इस समय हो रहा है। लेकिन, दमन से तो दमनकारी परिणामों की इस क़ीमत पर तो और भी ज़्यादा से ज़्यादा व्यापक विरोध पैदा होगा। लोकतांत्रिक मुखरता की यही तो प्रकृति है।

मौजूदा व्यवस्था को असहमति और विरोध, ख़ास तौर पर समानता और धर्मनिरपेक्ष अधिकारों के दावों को लेकर घोर आपत्ति है। हमारे संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार सबसे बुनियादी अधिकारों में से एक है। यह व्यवस्था बेहद चतुराई के साथ इस अधिकार और किये जाने वाले विरोध को दरकिनार कर देती है।इसलिए, यथास्थिति बनी रहे, इसके लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या पोशाक, भोजन और भाषा के ऐतबार से व्यक्तिगत पसंद जैसे मांगों को लेकर किये जाने वाले किसी भी तरह के संघर्ष को ख़ामोश कर दिया जाये।

यह बात न सिर्फ़ विरोध किये जाने वाले की भौतिक गुंज़ाइश के वंचित कर दिये जाने से साफ़ है, बल्कि आर्थिक नीतियों और बजटीय आवंटन में होने वाले उस असंतुलन में भी यह स्पष्ट दिखती है, जो ग़रीबों को प्रभावित करता है। इसी तरह एक साथ इकट्ठा होने का अधिकार और बंधुत्व का अधिकार भी ख़तरे में है।

ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम और राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम का इस्तेमाल धार्मिक और जातीय समूहों को उस बहस के बनाये रखने से रोकने के लिए किया जाता है, जो संविधान में दिये गये समानता के अधिकार की गारंटी (के नकारे जाने) पर सवाल उठाती है। कई सरकारों ने लोकतांत्रिक विरोध को दबाने के लिए बार-बार सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम का इस्तेमाल किया है। ये सख़्त क़ानून सरकार को किसी भी तरह की सज़ा से बाहर रखने और संविधान की ओर से मिली गारंटी पर सवाल उठाने वाली आवाजों को दबा देने के लिहाज़ से सुरक्षित कर देते हैं। इसलिए, ऐसे में यह अहम हो जाता है कि सभी लोकतांत्रिक विरोध और मुखरता एक साथ हों, ताकि यह तय हो सके कि संविधान की रक्षा और उसका कार्यान्वयन सिद्धांतगत और प्रक्रियागत हो। 

रश्मि सहगल: आंकड़े बताते हैं कि 2014 के बाद से देशद्रोह के मामलों में तक़रीबन 95% का इज़ाफ़ा हुआ है। पत्रकारों, छात्रों और ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं को जेलों में बंद कर दिया गया है,और भारत के मुख्य न्यायाधीश ने सवाल उठाया है कि स्वतंत्र भारत में ऐसा क़ानून क्यों मौजूद है। लोग इससे कैसे निपट सकते हैं ?

अरुणा रॉय: देशद्रोह के इस क़ानून का इस्तेमाल सरकार की सत्ता के दुरुपयोग को लेकर पूछे जाने वाले सुविधाजनक सवालों को विफल करने या सरकार की चूक पर सवाल उठाने वालों को दरकिनार करने का एक और साधन बन गया है। सरकार अक्सर ख़ुद को ही देश के रूप में पेश कर दे रही है। सोशल मीडिया पर लिखने वाले नौजवान छात्रों से लेकर पत्रकारों, ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं और तथाकथित देशद्रोही कृत्यों को अंजाम देने वालों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त है, जिन्हें इस कानून के तहत उठाया गया है। यह क़ानून अपने आप में मज़ाक बनकर रह गया है।

राजद्रोह को लेकर बना यह क़ानून औपनिवेशिक है और भारत के स्वतंत्र राष्ट्र बनने के बाद इसे रद्द कर दिया जाना चाहिए था। इस तरह के क़ानून की वैधता पर न्यायपालिका से जुड़े लोगों के साथ-साथ एक तबक़े की ओर से लगातार सवाल उठाया जाता रहा है।

हमें राजनीतिक दलों के साथ मिलकर मुहिम शुरू करनी होगी, ताकि नागरिकों को एक साथ आने के लिहाज़ से एक सार्वजनिक मंच का निर्माण किया जा सके और इस बात की मांग की जा सके कि लोकतांत्रिक अधिकारों को प्रभावित करने वाले क़ानूनों को या तो रद्द किया जाये या फिर संशोधित किया जाये, ताकि उनका इस्तेमाल लोकतंत्र को दबाने के लिए नहीं किया जा सके।

रश्मि सहगल: चार दशकों से आप सूचना के अधिकार के अभियान सहित कई आंदोलनों में सबसे आगे रही हैं। मोदी सरकार ने आरटीआई अधिनियम को लगातार कमज़ोर किया है, इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है, जबकि हर साल अस्सी लाख से ज़्यादा लोग इस क़ानून का सहारा लेते हैं ?

अरुणा रॉय: आरटीआई अधिनियम के पारित होने के बाद से ही इसे संशोधित किये जाने की कोशिश होती रही है। इसके पारित होने के छह महीने बाद ही यूपीए सरकार ने इसमें संशोधन करने की कोशिश की थी। लोगों की ओर से भारी विरोध हुआ और फिर संशोधन का इरादा छोड़ दिया गया। मौजूदा सरकार संसद के ज़रिये ज़बरदस्त संशोधन करते हुए इस क़ानून पर सीधा हमला करने में सफल रही है। इससे यह क़ानून कमज़ोर हुआ है। फिर भी, इस क़ानून का इस्तेमाल करने वाले नागरिक सही मायने में लोकतंत्र पर अमल करने वाले लोग हैं। वे समझ गये हैं कि आरटीआई सत्ता में भागीदारी का अधिकार मांग करता है, और सत्ता में बैठे लोग इस भागीदार से कतराते हैं। यह लड़ाई क़ानून में संशोधन के साथ ख़त्म नहीं हो गयी है, बल्कि इसका इस्तेमाल करने वाले 80 लाख लोगों के ज़रिये यह लड़ाई हर दिन चलती रहती है।

रश्मि सहगल: क्या आप हाल में हुए कुछ संशोधनों के बारे में विस्तार से बता सकती हैं और सरकार उन्हें किस तरह न्यायोचित ठहराती है ?

अरुणा रॉय: ये संशोधन सूचना आयोगों को कमजोर करते हैं और उन्हें केंद्र सरकार के ज़्यादा से ज़्यादा नियंत्रण में ले आते हैं। आयुक्तों की हैसियत को कमकर करके एक स्वतंत्र आयोग की संरचना को ही कमज़ोर कर दिया गया है। सरकार ने न सिर्फ़ आरटीआई आयोग के साथ ऐसा किया है, बल्कि एनएचआरसी, महिला आयोग, आदि जैसे लगभग सभी वैधानिक प्राधिकरणों की स्वतंत्रता पर हमला किया है। इन संशोधनों के पीछे उनकी रणनीति सभी निकायों को एक केंद्रीकृत व्यवस्था के तहत लाने की है और धीरे-धीरे संस्थागत ढांचे की उस जवाबदेही से दूरी बनाने की है, जो सज़ा से मुक्ति को चुनौती देने की इजाज़त देती है।

रश्मि सहगल: आप कहती हैं कि लोकतांत्रिक कामकाज सुनिश्चित करने वाले संगठनात्मक ढांचे ज़रूरी हैं, और इसके लिए समाज में आम सहमति आवश्यक है। लेकिन, क्या आज आपको आम सहमति बनती दिख रही है ?

अरुणा रॉय: भारत में सबसे अहम सर्वसम्मति तो भारतीय संविधान है। यह भारत का वह विचार है, जो हमारे मूलभूत सिद्धांतों और उन्हें साकार करने में मदद करने के लिए आवश्यक संस्थागत ढांचों को निर्धारित करता है। ग़ैर-बराबरी और सांस्कृतिक आधिपत्य को बढ़ावा देने वाली नीतियों के सम्मिश्रण ने इन्हीं संवैधानिक सिद्धांतों को चुनौती दी है और उन्हें तबाह कर दिया है। कुछ राज्यों में सीएए और कथित लव जिहाद क़ानून जैसे क़ानून सांस्कृतिक विभाजन को बढ़ावा देने के लिए ही बनाये गये हैं। यूएपीए जैसे क़ानूनों और उनके पूरी तरह से अंधाधुंध इस्तेमाल ने लोकतांत्रिक गुंज़ाइश को कमज़ोर कर दिया है। जब से बाज़ार से जुड़ी कट्टरता आर्थिक नीति मानकों पर काबिज हो गया है, तब से राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों की अनदेखी की जाती रही है।

रश्मि सहगल: आप वंचितों के साथ काम करती हैं और मौलिक अधिकारों को बढ़ावा देती हैं। आज ग़रीब पूरी तरह हाशिये पर चला गया है। भारत इसे किस तरह बदल सकता है ?

अरुणा रॉय: संविधान तैयार करने वालों ने न्याय और समानता की साझा नैतिकता विकसित करके जाति, धार्मिक और जातीय मतभेदों में विभाजित इस समाज को एकजुट करने की मांग की थी। इसलिए, हमें क़ानून, नीति या प्रतिबंधात्मक सरकारी कार्रवाई के ज़रिये उनसे दूर किये जाने पर सवाल उठाते हुए संवैधानिक सिद्धांतों को अमल में लाने के लिए कड़ी मेहनत करते रहनी चाहिए। भारत को उस समावेशी नेतृत्व की ज़रूरत है, जो लोगों और समुदायों को एक साथ लाये। इसे ऐसी आर्थिक नीतियों की आवश्यकता है, जो आर्थिक रूप से हाशिए पर पड़े लोगों को संसाधनों में हिस्सेदारी के अधिकार के साथ सशक्त बनायें, और एक परामर्शी, विचारशील और भागीदारी वाले लोकतांत्रिक ढांचे की ज़रूरत है।

रश्मि सहगल: क्या आपको इस बात का डर है कि संविधान बदल दिया जायेगा? अगर हां, तो क्यों? क्या आप इसे विस्तार से बता  सकती हैं?

अरुणा रॉय: सत्ता पक्ष के क़रीबी लोग संविधान को बदलकर "हिंदू राष्ट्र" करने के संकल्प के साथ लामबंद हो रहे हैं। तथाकथित धर्म संसद उस नये संविधान के लिए चुनावी राजनीति के साथ बहुसंख्यक धार्मिक पहचान को जोड़ने और इसके लिए अगर ज़रूरी हो, तो हथियार उठाने का खुला आह्वान कर रही है। सरकारी मशीनरी किसी ओर तरीक़े से इसे देखती है, क्योंकि इससे ज़बरदस्त संविधान-विरोधी लामबंदी होती है।

यह विडंबना ही है कि वंचितों को हाशिये पर धकेल दिया गया है। फ़ैसले अब राजनीतिक व्यवस्था के तहत नहीं लिये जा रहे हैं। जो सरकार दिखायी पड़ती है, वह आर्थिक हितों को लेकर आनाकानी करती है, जबकि शक्तिशाली कॉर्पोरेट राजकोषीय नीति निर्धारित करते हैं। "धार्मिक पहचान" पर आधारित राजनीति की नीतिगत मजबूरियों और परिकल्पना के ज़रिये सामाजिक और लोकतांत्रिक संरचनाओं को नया रूप-रंग दिया जा रहा है और इसी से शक्ति हासिल कर रही है। जैसा कि डॉ बीआर अंबेडकर ने संविधान का मसौदा सौंपते समय भारतीय राष्ट्र को अपनी चेतावनी में स्पष्ट रूप से बताया था कि सामाजिक-आर्थिक ढांचे में निहित स्वार्थों से टकराने के लिए असहमति का अधिकार एक ऐसा शाश्वत अधिकार है,जो बेहद ज़रूरी है। लोकतांत्रिक गुंज़ाइश को सिकोड़कर और स्वतंत्र संस्थानों को कमज़ोर करके इसे कमज़ोर किया जा रहा है।

पैसे और कुलीनता की ताक़तों के प्रभुत्व वाली इस चुनावी व्यवस्था में हाशिए पर पड़े लोगों को उनके वोट के माध्यम से ही आर्थिक और सामाजिक समानता के लिए लड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है। वोट का अधिकार तो किसी लोकतंत्र के चलने के लिए कई ज़रूरी शर्तों में से महज़ एक शर्त है।

रश्मि सहगल: किस तरह? क्या आप इसे विस्तार से बता सकती हैं?

अरुणा रॉय: ऐसा दो घोषित नज़रियों से समानता के सामने बड़े ख़तरे हैं। पहला संविधान की प्रकृति धर्मनिरपेक्ष है। नागरिकों के कई स्तरों में विभाजन करके प्रमुख धार्मिक ढांचे को पेश किये जाने से इसे ख़तरा है। यह नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019, धर्मांतरण विरोधी क़ानूनों और यूएपीए के उदाहरणों से स्पष्ट है।संविधान की ओर से गारंटीकृत आर्थिक समानता को नव-उदारवादी अर्थशास्त्र और ट्रिकल-डाउन सिद्धांत से आय, धन और संसाधनों तक पहुंच के लिहाज़ से बढ़ती खाई से ख़तरा है। ग़ैर-बराबरी को लेकर जारी ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट दिखाती है कि महामारी (मार्च 2020 से नवंबर 2021 के अंत तक) के दौरान किस तरह 142भारतीय अरबपतियों की संपत्ति 23.14 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 53.16 लाख करोड़ रुपये हो गयी। इस बीच, 2020 में 4.6 करोड़ से ज़्यादा भारतीयों के बेहद गरीबी की ज़द में आ जाने का अनुमान है।

रश्मि सहगल: आपने शिल्पकारों, कारीगरों और अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के साथ काम किया है, उनमें से कई को रोज़गार के नुक़सान का सामना करना पड़ रहा है। क्या आप मुझे उनकी स्थितियों के बारे में और बता सकती हैं कि वे किस तरह अपने हालात का सामना कर रहे हैं?

अरुणा रॉय: शिल्प का क्षेत्र तो नव-उदारवादी नीति और सिकुड़ते सरकारी मदद से प्रभावित हैं। महामारी ने पहले से ही पंगु हो चुके ग्रामीण शिल्प व्यवसायों को और तबाह कर दिया है। महामारी से उनकी आमदनी और बाज़ार और भी सिकुड़ गये हैं। भारतीय कार्यबल का चौरासी प्रतिशत अनौपचारिक क्षेत्र में है। वे अर्थव्यवस्था और उत्पादन को ताक़त देते हैं लेकिन, वे ख़ुद ही बेहद अनिश्चित परिस्थितियों में रह रहे हैं। कई लोगों के लिए तो वजूद का ख़तरा है, और इसलिए, यह कहना मुश्किल है कि वे इसका सामना कर पाने में सक्षम हैं।

महामारी ने हमें इस बात का अंदाज़ा दे दिया है कि हमारा कार्यबल कितना संकटग्रस्त है। कॉरपोरेट्स के एक छोटे से प्रतिशत ने अपनी संपत्ति में बड़ी मात्रा में बढ़ोत्तरी कर ली है, जबकि बड़ी संख्या में लोगों को ग़रीबी और अभाव में धकेल दिया गया है। यह एक ऐसा परिदृश्य है,जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह किसी भी समाज या देश की सेहत के लिए अच्छा नहीं है। फिर भी, हम इसके लिए सिर्फ़ सरकार को ही दोष नहीं दे सकते। हमारे विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग लालच और बड़ी संख्या में संकटग्रस्त लोगों की चिंता किये बग़ैर ज़्यादा से ज़्यादा धन और संसाधन जमा करने की इच्छा से प्रेरित हैं। हम भूल जाते हैं कि हम सभी आपस में जुड़े हुए हैं, और यह लापरवाह रवैया हम सभी को बुनियादी तौर पर परेशान करने के लिए फिर से वापस आयेगा। 

रश्मि सहगल: नये श्रम क़ानूनों ने लामबंदी और विरोध को और भी मुश्किल बना दिया है। आगे का रास्ता क्या है?

अरुणा रॉय: नये श्रम क़ानून भी उसी ढांचे का हिस्सा हैं, जो स्वतंत्र भारत में कई दशकों तक चले श्रमिकों के संघर्षों से सुरक्षित श्रम अधिकारों की क़ीमत पर कॉर्पोरेट के मुनाफ़े को बढ़ावा देता है। इसमें संगठित होने, मुखर होने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को कम करना शामिल है। औद्योगिक सम्बन्ध संहिता, 2020, हड़ताल के अधिकार पर अंकुश लगाकर और हड़ताल के पहले 14 से 60 दिनों के नोटिस की मांग करके और यूनियनों की मान्यता को रोककर सीधे-सीधे संविधान में गारंटीकृत संगठित होने की स्वतंत्रता के अधिकार को नष्ट कर रहा है।

इसी तरह श्रम क़ानूनों को सुव्यवस्थित करने के नाम पर मज़दूरी और सामाजिक सुरक्षा जैसे कई अधिकारों का भी हनन किया गया है। इन श्रम क़ानूनों को निरस्त किया जाना चाहिए, और किसी भी तरह के श्रम सुधार के लिए आवश्यक है कि इसमें प्रमुख श्रमिक संघों और कई असंगठित क्षेत्र के श्रमिक समूहों की भागीदारी होनी चाहिए,ताकि आम सहमति तक पहुंचा जा सके। इस असंगठित क्षेत्र का भविष्य आर्थिक अधिकारों के हनन के ख़िलाफ़ श्रमिकों की आवाज़ उठाने में ही निहित है। इन श्रम कानूनों, जलवायु परिवर्तन और मुनाफ़ा से संचालित आर्थिक नीतियों का सभी समुदायों और नागरिक समूहों पर असर पड़ता है। लेकिन, अपनी आवाज उठाने का काम लामबंदी पर इतना निर्भर नहीं करता है, जितना कि कुछ समय के लिए समान रूप से प्रभावित इन समूहों के अपनी समस्याओं के निवारण को लेकर एक साथ आने पर निर्भर करता है। लामबंद होने का यह नया रूप मौजूदा मुख्यधारा के ढांचे में आर्थिक अधिकारों की मांग करने वाले लोगों की आवाज़ को बनाये रखेगा।

रश्मि सहगल: मनरेगा को पैसे के आवंटन में मोदी सरकार लगातार कटौती कर रही है। क्या आपको ऐसा लगता है कि ऐसा समय भी आयेगा, जब केंद्र सरकार इसे बंद ही कर दे ?

अरुणा रॉय: मनरेगा की आर्थिक संरचना को कुचलने और नष्ट करने की कोशिश की जा रही है, जबकि मनरेगा ने महामारी और बड़े पैमाने पर मज़दूरों के प्रवास के दौरान ग्रामीण लोगों की ज़िंदगी को साफ़ तौर पर थामे रखा। लाखों परिवारों को भुखमरी और अभाव से बचाने के लिए मोदी सरकार को मनरेगा और खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 की ओर रुख़ करने के लिए मजबूर होना पड़ा।फिर भी, इस सरकार की लगातार कोशिश यही रही है कि इन क़ानूनों और दूसरे क़ानूनों की अधिकार-आधारित प्रकृति को कमज़ोर किया जाये और उसे लेकर लगातार सवाल किया जाये। सब कुछ को ख़ुद के पक्ष या खैरात के ढांचे में रखने की कोशिश की जा रही है। प्रधान मंत्री ने कहा था, "मोदी का नमक खाया है"।इसका मतलब सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिये वितरित खाद्यान्न के आधार पर वोट मांगना था, यानी कि एक ‘अधिकार’ को दरियादिली वाले वितरण के सामंती ढांचे के भीतर रखना था। मोदी सरकार शायद मनरेगा को एक ऐसी योजना के रूप में बनाये रखना चाहेगी, जिसकी फ़ंडिंग वह अपनी प्राथमिकताओं के हिसाब से बढ़ा या घटा सके।

हालांकि, मनरेगा कोई योजना नहीं, बल्कि एक क़ानून है। इसलिए, गारंटीकृत रोज़गार मांगने के इस अधिकार को क़ानूनी अधिकार के तौर पर स्थापित किया गया है। चूंकि यह क़ानून श्रमिकों को काम मांगने का अधिकार देता है, इसलिए कोई भी सरकार इस क़ानून के मक़सद और सिद्धांत के ख़िलाफ़ जाकर रोज़गार दिये जाने से इनकार नहीं कर सकती है। सरकार अपनी फ़ंडिंग को कम करके और इसके मांग-संचालित ढांचे को कमज़ोर करके इसे संकुचित करने की कोशिश कर रही है। हालांकि, मनरेगा के बजट को सिर्फ़ अस्थायी परिव्यय के रूप में देखा जा सकता है। अगर काम की मांग बढ़ती है, तो सरकार काम और मज़दूरी उपलब्ध कराने के लिए क़ानूनी तौर पर बाध्य है।

(रश्मि सहगल एक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें:

‘India Needs Inclusive Leadership that Brings People, Communities Together’—Aruna Roy

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