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बीजापुर एनकाउंटर रिपोर्ट: CRPF की 'एक भूल' ने ले ली 8 मासूम आदिवासियों की जान!

जस्टिस वीके अग्रवाल ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इस कथित एनकाउंटर में मारा गया कोई भी व्यक्ति माओवादी नहीं था और ये हमला ‘एक भूल' थी। रिपोर्ट में कहा गया है कि यह घटना 'दहशत में प्रतिक्रिया' और सुरक्षा बलों द्वारा गोलीबारी के कारण हुई।
बीजापुर एनकाउंटर रिपोर्ट: CRPF की 'एक भूल' ने ले ली 8 मासूम आदिवासियों की जान!
प्रतिकात्मक तस्वीर

"ऑपरेशन के पीछे कोई मजबूत खुफिया जानकारी नहीं थी। इकट्ठे हुए लोगों में से किसी के पास हथियार नहीं थे और ना ही वे माओवादी संगठन के सदस्य थे।"

ये हैरान और परेशान कर देने वाली बातें छत्तीसगढ़ के बीजापुर कथित एनकाउंटर से संबंधित हैं। बीजापुर के एड़समेटा गांव में 17 मई 2013 की रात कथित मुठभेड़ की घटना की जांच के लिए गठित हुए जस्टिस वीके अग्रवाल आयोग ने आठ साल बाद आखिरकार अपनी रिपोर्ट छत्तीसगढ़ सरकार को सौंप दी है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इस कथित एनकाउंटर में मारा गया, कोई भी व्यक्ति माओवादी नहीं था और ये हमला ‘एक भूल' थी। इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद बस्तर में होने वाली मुठभेड़ की अन्य घटनाओं को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं।

आपको बता दें कि ये घटना बीजेपी की रमन सिंह सरकार के कार्यकाल में हुई थी। तब पुलिस ने सीआरपीएफ़ की कोबरा बटालियन के साथ एक मुठभेड़ में आठ माओवादियों के मारे जाने और भारी मात्रा में हथियार बरामद करने का दावा किया था। जिसे अब जस्टिस वी के अग्रवाल आयोग ने पूरी तरह से फ़र्ज़ी क़रार दिया है।

क्या है पूरा मामला?

बीजापुर के गंगालूर थाना के एड़समेटा गांव में 17-18 मई 2013 की रात, कथित मुठभेड़ की घटना सामने आई थी। इसमें सुरक्षाबलों ने नक्सली-माओवादी बताते हुए निर्दोष आदिवासियों को घेर कर एकतरफ़ा फायरिंग की थी, जिसमें आठ आदिवासियों समेत एक पुलिसकर्मी की मौत हो गई थी। मृतकों में तीन नाबालिग़ भी शामिल थे। इस कथित एनकाउंटर को लेकर व्यापक विरोध हुआ था, जिसके बाद राज्य सरकार ने मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जज वी के अग्रवाल के रूप में एकल जाँच आयोग का गठन किया था।

जाँच आयोग का कार्यकाल छह महीने तय किया गया था लेकिन आठ साल बाद, अब कहीं जा कर आयोग की रिपोर्ट पेश की गई है। बुधवार, 8 सितंबर को छत्तीसगढ़ सरकार को यह न्यायिक जांच रिपोर्ट सौंपी गई। अंग्रेज़ी में प्रस्तुत रिपोर्ट में कहा गया है कि यह घटना 'दहशत में प्रतिक्रिया' और सुरक्षा बलों द्वारा गोलीबारी के कारण हुई।

इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक, जस्टिस वीके अग्रवाल ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इस कथित एनकाउंटर में मारा गया कोई भी व्यक्ति माओवादी नहीं था और ये हमला ‘एक भूल' थी। मंत्रिमंडल में पेश इस रिपोर्ट के सारांश में भी कहा गया है कि जलती हुई आग के आसपास इकट्ठे लोगों को देख कर, ग़लती से उन्हें नक्सली संगठन का सदस्य मान लिया गया था। रिपोर्ट में कहा है कि विश्वसनीय सबूतों से यह संतोषजनक रुप से साबित हो गया है कि आग के आसपास व्यक्तियों की सभा 'बीज पंडूम' उत्सव के लिए थी। आयोग ने साफ़-साफ़ कहा है कि मारे जाने वाले लोग नक्सली संगठन के नहीं थे। रिपोर्ट में फायरिंग की घटना को ‘गलत धारणा और घबराहट की प्रतिक्रिया’ का परिणाम बताया गया है।

अब सवाल उठता है कि क्या सीआरपीएफ के जवानों ने पीड़ित ग्रामीणों की हत्या की? रिपोर्ट में कुछ अलग बात कही गई है। इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, जस्टिस वीके अग्रवाल की रिपोर्ट कहती है कि सुरक्षाकर्मियों ने ‘घबराहट में गोलियां चलाई होंगी’। हालांकि पूर्व न्यायाधीश ने सीआरपीेएफ के कामकाज पर सवाल खड़े किए हैं।

रिपोर्ट में क्या-क्या खुलासे हुए हैं?

रिपोर्ट के मुताबिक़, 17 मई 2013 की रात सीआरपीएफ ने दावा किया था कि उसकी टीम पर हमला किया गया था, जिसकी जवाबी कार्रवाई में जवानों ने गोलीबारी की। लेकिन रिपोर्ट में इस बात को गलत करार दिया गया है। सुरक्षाबल के जवानों में दहशत को लेकर आयोग ने टिप्पणी की है कि सुरक्षाबलों द्वारा की गई गोलीबारी आत्मरक्षा में नहीं थी, बल्कि यह गोलीबारी उनकी ओर से 'ग़लत धारणा' और 'घबराहट की प्रतिक्रिया' के कारण प्रतीत होती है। रिपोर्ट में इस कथित एनकाउंटर को तीन बार “गलती” बताया गया है। न्यायमूर्ति अग्रवाल ने कहा है कि मारे गए आदिवासी निहत्थे थे और उन पर 44 राउंड फ़ायरिंग की गई थी।

आयोग ने इस गोलीबारी में मारे गए कॉन्स्टेबल देव प्रकाश को लेकर कहा है कि देव प्रकाश की मौत, सुरक्षाबल के अपने ही साथियों की ‘फ़्रेंड्ली फ़ायर’ में हुई थी। रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि ग्रामीणों की तरफ से कोई क्रॉस-फायर नहीं हुआ था। सुरक्षाबल के जवानों ने 44 राउंड फ़ायरिंग की थी, जिसमें अकेले देव प्रकाश ने 18 राउंड फ़ायरिंग की थी।

रिपोर्ट के मुताबिक, घटना को लेकर एक ग्रामीण करम मंगलू ने दावा किया था कि उसने सीआरपीएफ के लोगों को फ़ायरिंग रोकने की बात कहते सुना था। उसने कहा था, "जब फायरिंग चल रही थी, हमने अचानक उन्हें चिल्लाते हुए सुना, ‘रोको फायरिंग, हमारे एक आदमी को गोली लगी है।"

आयोग ने कहा है कि सभी घायलों और मारे गए लोगों के परिजन को राज्य सरकार ने मुआवज़े की पेशकश की थी। जबकि राज्य की नीति में मृतक या घायल नक्सलियों या उनके परिजनों को मुआवज़ा नहीं दिया जाता। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य सरकार ने घायल व मृतकों को नक्सली के रुप में स्वीकार नहीं किया था।

रक्षा उपकरणों से लेकर सही जानकारी तक सीआरपीएफ के कामों में कई ख़ामियां हैं!

आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सुरक्षाबल न तो आवश्यक रक्षा उपकरणों से पूरी तरह सुसज्जित थे, न ही उन्हें उचित जानकारी दी गई थी और ना ही नागरिकों के साथ टकराव से बचने के निर्देश दिए गये थे। अपनी रिपोर्ट में आयोग ने कहा है कि मार्चिंग ऑपरेशन शुरु करने से पहले, उचित और आवश्यक सावधानियों का पूरी तरह से पालन नहीं किया गया।

रिपोर्ट में आगे कहा गया है, "अगर सुरक्षा बलों को आत्मरक्षा के लिए पर्याप्त गैजेट दिए जाते, अगर उनके पास बेहतर जमीनी खुफिया जानकारी होती और वे सावधान रहते तो घटना को टाला जा सकता था।

रिपोर्ट में कहा गया है कि मौके से सीआरपीएफ ने दो राइफलें जब्त करने का बात कही थी। लेकिन कांस्टेबल देव प्रकाश के सिर में गोली उन राइफ़ल से नहीं लगी थी। रिपोर्ट में इन राइफलों की ज़ब्ती को ‘संदिग्ध’ और ‘अविश्वसनीय’ बताया गया है। साथ ही सीआरपीएफ अधिकारियों को फटकार लगाते हुए कहा गया है कि कोई भी बरामद सामान फोरेंसिक लैब में नहीं भेजा गया।

आयोग ने सुरक्षाबलों के लिए बेहतर प्रशिक्षण मॉड्यूल की ज़रुरत पर बल देते हुए कहा है कि सुरक्षा बलों को सामाजिक परिस्थितियों और धार्मिक त्यौहारों से भी परिचित कराया जाना चाहिए। सुरक्षाबलों को स्थानीय लोगों के साथ अधिक बातचीत के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

आयोग ने कहा है कि सुरक्षाबलों को भी स्थानीय त्यौहारों और भोले-भाले निवासियों की गतिविधियों में भाग लेने की सलाह दी जानी चाहिए, ताकि सुरक्षा बलों के सदस्यों को उनके रहन-सहन और रीति रिवाजों से अवगत कराया जा सके। इससे आपसी विश्वास पैदा होगा और महत्वपूर्ण ख़ुफ़िया सूचनाओं की गुणवत्ता और मात्रा में भी सुधार हो सकता है।

'दबाव व जल्दबाजी में कोई कार्य न करें'

इसके साथ-साथ उन्हें आधुनिक गैजेट्स, संचार के साधन, बुलेटप्रूफ़ जैकेट, नाइट विज़न डिवाइस और रक्षा के ऐसे उपकरण उपलब्ध कराए जाने चाहिए, ताकि बल के सदस्य अधिक सुरक्षित और आत्मविश्वास महसूस करें और दबाव व जल्दीबाज़ी में कोई कार्य न करें।

सुरक्षाबलों के मानसिक ताने-बाने में सुधार के लिए आयोग ने समय-समय पर विस्तृत पाठ्यक्रम प्रदान करने की अनुशंसा के साथ-साथ आयोग ने कहा है कि सुरक्षाबल के सदस्यों को गुरिल्ला मोड में सामरिक लड़ाई का मुक़ाबला करने के लिए व्यापक प्रशिक्षण प्रदान करना चाहिए, जिसे आमतौर पर नक्सल या आतंकवादी संगठनों द्वारा अपनाया जाता है।

मालूम हो कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका की सुनवाई के दौरान यह तथ्य सामने आया कि पाँच सालों में एसआईटी केवल पाँच लोगों का बयान भर ले पाई। इसके बाद तीन मई 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने पूरे मामले की जाँच सीबीआई से कराने के निर्देश दिए। इस मामले में चार जुलाई 2019 को सीबीआई ने अज्ञात लोगों के ख़िलाफ़ आपराधिक षडयंत्र, हत्या और हत्या की कोशिश का मामला दर्ज कर उसकी जाँच शुरु कर दी है। लेकिन अभी तक सीबीआई की जाँच रिपोर्ट नहीं आई है।

बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का कहना है कि एड़समेटा पर न्यायिक जाँच आयोग की रिपोर्ट विधानसभा में पेश की जाएगी। उन्होंने पत्रकारों से बातचीत में कहा, "रिपोर्ट आ चुकी है, वो बात बिल्कुल सही है। लेकिन विधानसभा में जब तक उसे पेश नहीं करेंगे, वो सार्वजनिक नहीं की जा सकती। उसमें गोपनीयता का भी एक सवाल है।"

मानवाधिकार मामलों में सक्रिय हाईकोर्ट की अधिवक्ता और आम आदमी पार्टी की प्रवक्ता प्रियंका शुक्ला का कहना है कि राज्य सरकार आदिवासियों की हत्या के मामलों में हमेशा चुप्पी साध लेती है। उनका कहना है कि भाजपा और कांग्रेस सरकार में आदिवासियों के फ़र्ज़ी मुठभेड़ के सैकड़ों मामले हैं, जिनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होती। इन सबकी स्वतंत्र, तय समय सीमा में जाँच और उस पर कार्रवाई ज़रुरी है और ऐसे मामलों में ज़िम्मेदारी भी तय होनी चाहिए।

प्रियंका कहती हैं, "हालत ये है कि कोर्ट के आदेश या जाँच आयोगों की रिपोर्टों को भी सरकार रद्दी के टोकरी में डाल देती है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को बताना चाहिए कि 17 आदिवासियों के फ़र्ज़ी मुठभेड़ मामले की न्यायिक जाँच आयोग की रिपोर्ट दिसंबर 2019 में विधानसभा में पेश की गई थी। उस रिपोर्ट पर कार्रवाई करने के बजाय उसे ठंडे बस्ते में डाल कर, हत्या के अभियुक्तों को भूपेश बघेल क्यों बचाने में जुटे हुए हैं?"

ऐसे और भी मामले हैं जहां न्याय का अभी भी इंतज़ार है!

गौरतलब है कि नक्सली-माओवादी का ठप्पा लगाकर आदिवासियों को मारने का ये कोई अकेला या पहला मामला नहीं है। हकीकत ये है कि ऐसी घटनाओं को लेकर कई बार सुरक्षा बल सवालों के घेरे में रहे हैं। इससे पहले भी दिसंबर 2019 में जस्टिस वीके अग्रवाल आयोग ने ही जून 2012 में बीजापुर के सारकेगुड़ा में हुए कथित मुठभेड़ में 17 माओवादियों के मारे जाने के पुलिस के दावे को फ़र्ज़ी क़रार देते हुए अपनी रिपोर्ट में कहा था कि मारे जाने वाले लोग गांव के आदिवासी थे।

इस रिपोर्ट के बाद भी आज तक राज्य सरकार ने '17 निर्दोष आदिवासियों के मारे जाने' के मामले में एक एफआईआर तक दर्ज नहीं की है और रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। हालांकि, ताज़ा रिपोर्ट को मंत्रिमंडल के समक्ष पेश किया गया है। राज्य सरकार ने कहा है कि इसे विधानसभा के पटल पर पेश करने के बाद, क़ानूनी कार्रवाई की दिशा में सरकार आगे बढ़ेगी।

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