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CAA-NPR-NRC : सबसे ज़्यादा नुक़सान डि-नोटिफ़ाईड और ख़ानाबदोश जनजातियों को होगा

महाराष्ट्र में इन समुदायों से आने वाले ज़्यादातर लोगों का कोई तय घर, गांव या पता नहीं है। न उनके पास पहचान पत्र हैं, न ही जन्म प्रमाण पत्र या दूसरे सर्टिफ़िकेट। यहाँ तक कि उनके पास ख़ुद को दफ़नाने की ज़मीन भी नहीं है।
Indubai Gailwad( Old Lady in Yellow Sari in Middle) at Bhil Hamlet at Alegoan Paga village in Pune

पुणे : ''डि-नोटिफ़ाइड एंड नोमेडिक ट्राइब्स (DNTs)'', जिनमें से कई के पास अब भी आईडी कार्ड नहीं हैं, उन्हें नागरिकता संशोधन अधिनियम, एनआरसी और नेशनल पापुलेशन रजिस्टर के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है। लेकिन इन जनजातियों के एक्टिविस्ट और अकादमिक क्षेत्र से जुड़े लोगों ने जागरुकता अभियान चलाना शुरू कर दिया है। इस जागरुक अभियान में जनजाति के लोगों से दस्तावेज़ न देने की अपील की जा रही है। उन्हें लगता है कि मुस्लिमों से ज़्यादा DNT के लोग प्रभावित होंगे।

1931 में ख़ानाबदोश और डि-नोटिफ़ाइड जनजातियों के लोग आख़िरी थे, जिनकी जाति आधारित जनगणना हुई थी। इसलिए इनकी सही जनसंख्या मालूम नहीं है। 2008 में बालकृष्ण रेनाके की अध्यक्षता में ''नेशनल कमीशन फॉर डि-नोटिफ़ाइड, नोमेडिक एंड सेमीनोमेडिक ट्राइब्स'' ने अपनी रिपोर्ट में इनकी जनसंख्या को कुल आबादी का सात फ़ीसदी बताया था। इसके मुताबिक़ इनकी कुल आबादी दस से पंद्रह करोड़ के आसपास होगी। रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में 650 ख़ानाबदोश और 150 DNT जनजातियां हैं।

अपनी उम्र के तीसरे दशक में चल रहे रवि पवार, पुणे के ट्रैफिक सिग्नल पर फटे कपड़ों और रंगबिरंगे बालों में अपने माता-पिता और दो युवा बच्चों के साथ गुलाब, गुब्बारे और दूसरे खिलौने बेचते हैं। वह डि-नोटिफ़ाइड जनजाति पारधी से ताल्लुक रखते हैं। बानेर की हाईस्ट्रीट के पास फ़ुटपाथ पर बैठे रवि ने बताया कि उनके पास आईडी कार्ड के नाम पर- आधार, वोटर कार्ड या राशन कार्ड, कुछ भी नहीं है। वह कहते हैं, ''मेरे घर में किसी के पास आईडी कार्ड नहीं है। मेरे माता पिता के पास जो कार्ड थे, वे हमारी झुग्गी में लगी आग में 6 साल पहले जल गए।"

रवि और उनके भाई कभी स्कूल नहीं गए, उन्हें नागरिकता संशोधन अधिनियम के बारे में भी कोई जानकारी नहीं है। न ही उनके पास बैंक अकाउंट है।

रेनाके कमीशन के मुताबिक़, नोटिफ़ाइड ट्राइब्स, डि-नोटिफ़ाइड ट्राइब्स और SNTs में 72 फ़ीसदी लोगों के पास राशन कार्ड नहीं है। 48 फ़ीसदी DNTs और 60 फ़ीसदी ख़ानाबदोश जनजातियों के बच्चों के पास जन्म प्रमाणपत्र भी नहीं हैं। ख़ानाबदोश जनजातियों में 62 फ़ीसदी के पास जाति प्रमाणपत्र और 98 फ़ीसदी लोगों के पास ख़ुद की ज़मीन नहीं है। वहीं 49 फ़ीसदी DNTs के पास जाति प्रमाणपत्र और 89 फ़ीसदी के पास ज़मीन नहीं है।

इस बीच ''भट्क्या विमुक्ता जाति संगठन महाराष्ट्र'' के प्रमुख लक्ष्मण माने ने राज्य भर के DNTs के लोगों से दस्तावेज़ न दिखाने की अपील की है। उनके संगठन ने हर ज़िले में एक मीटिंग करने की योजना बनाई है, ताकि लोगों को सीएए, एनआरसी और एनपीआर के बारे में जागरुक किया जा सके और उनसे दस्तावेज़ न देने को कहा जा सके।

माने ने कहा, ''यह मनुस्मृति क़ानून को वापस लाने के लिए ब्राह्मणों की चाल है, ताकि DNTs जैसी निचले तबके की जातियों के साथ भेदभाव किया जा सके। जबकि यह लोग अब भी बुनियादी शिक्षा, घरों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वे 1951 से पहले के सर्टिफ़िकेट पेश नहीं कर पाएंगे। उन्हें डिटेंशन सेंटर में भेज दिया जाएगा। सीएए, एनआरसी और एनपीआर का मिला-जुला खेल DNTs को मुस्लिमों से ज़्यादा नुक़सान पहुंचाएगा।''

पुणे के यूनिवर्सिटी चौक पर खिलौने बेचने वाले संतोष पवार जो पारधी जनजाति से ही ताल्लुक रखते हैं, वे बताते हैं कि उन्होंने कभी मतदान नहीं किया, आधार कार्ड को छोड़कर न ही उनके पास किसी तरह का पहचान पत्र है। वे कार्वेनगर में रहते हैं। संतोष कर्नाटक के वीजापुर से आए हैं, जहां उनकी झुग्गी कपड़े और प्लास्टिक से बनी है। वहां उनके पास कोई काम नहीं था। उनके माता-पिता और पत्नी मर चुके हैं। उन्होंने बताया, ''मेरे पास सिर्फ़ आधार कार्ड है, जो मैं वीजापुर में भूल आया।''

वैशाली भंडवालकर का संगठन ''निर्माण'' अलग-अलग DNTs को सर्टिफ़िकेट दिलवाने में मदद करते हैं। उनके मुताबिक़, ''अब भी बीस से तीस फ़ीसदी DNTs के पास किसी भी तरह का पहचान पत्र नहीं है। कई लोगों के पास वोटर आईडी कार्ड है, क्योंकि राजनेताओं ने उनकी मदद की। पर वो DNTs जिनके पास कोई ज़मीन नहीं है और वे ख़ानाबदोश हैं, उनके पास कोई ज़मीन के काग़ज़ भी नहीं हैं। यह समुदाय स्कूल, बैंक या पोस्ट ऑफ़िस जाने में अपनी ग़रीबी के चलते सक्षम नहीं है। इसलिए वो इन सबूतों के पेश नहीं कर पाएंगे।''

भंडवालकर का विश्वास है कि डि-नोटिफ़ाइड ट्राइब्स को इस प्रक्रिया में सबसे ज़्यादा दिक़्क़तों का सामना करना पड़ेगा। भंडवालकर का कहना है, ''सीएए,एनआरसी और एनपीआर में किन पहचान पत्रों को मान्य क़रार दिया जाएगा, इस पर लोगों में संशय है। लेकिन इस प्रक्रिया में सबसे ज़्यादा परेशानी DNTs को उठानी पड़ेगी।''

यही कहानी दूसरी जनजातियों के मामले में भी है। पुणे ज़िले की शिरूर तालुका के अलेगांव पागा में रहने वाले 35 भील परिवारों में से 14 के पास कोई भी पहचान पत्र नहीं है। बता दें भील एक और डि-नोटिफ़ाइड जनजाति है।

इंदुबाई गायकवाड़ जिनकी पोतियों की शादियां हो चुकी हैं, वह कहती हैं कि उनके पास कोई पहचान पत्र नहीं है। गायकवाड़ के मुताबिक़, ''मेरे दादा-दादी भी गांव में इसी जगह रहते थे, सरकार से कोई पहचान पत्र देने नहीं आया।''

ग्रामीण पुणे के इलाकों में काम करने वाली एक्टिविस्ट सुनीता भोसले बताती हैं, ''पूरे पुणे में DNT के इलाक़ों में यही कहानी है। पुणे के हर दूसरे गांव में एक या दो DNT जनजातियों के टोले हैं। उन्हें कभी भारत का नागरिक नहीं माना गया।''

आयोग की अध्यक्षता करने वाले बालकृष्ण रेनाके बताते हैं, ''DNTs में हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध और क्रिश्चियन सभी आते हैं। इनकी आबादी को 1931 की जनगणना में शामिल किया गया था। इसलिए वे सभी भारतीय नागरिक हैं। लेकिन इसको साबित करने के लिए उनके पास किसी भी तरह के दस्तावेज़ नहीं हैं।''

रेनाके आगे कहते हैं, ''सीएए और एनआरसी पर लोगों में संदेह है, सरकार ने एनपीआर की प्रक्रिया भी शुरू कर दी है। इसके लिए DNTs के लोगों को पता और दूसरी जानकारी देनी होगी। लेकिन इनके पास कोई स्थायी पता, गांव या घर नहीं होता। वो कैसे ये जानकारी देंगे? वह जन्म तारीख़ की जानकारी कैसे देंगे। उनके पास दफ़नाने की जगह भी नहीं होती।''

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

CAA-NPR-NRC Will Harm De-Notified and Nomadic Tribes the Most

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