दुख की बात है कि हमारे समाज में फादर स्टेन स्वामी जैसे लोग हीरो नहीं बनते!
फादर स्टेन स्वामी जैसे लोगों को भारत जैसे देश का हीरो होना चाहिए। लेकिन दुख की बात यह है कि हम में अधिकतर लोगों ने आदिवासी अधिकारों की लड़ाई में अपना जीवन खपा देने वाले इस इंसान के बारे में तब जाना जब भीमा कोरेगांव मामले में इन्हें गिरफ्तार किया गया।
दुख की बात यह है जिन्हें हमारे समाज का प्रेरणास्रोत होना चाहिए था, उन्हें हमारे समाज की देखरेख करने वाली संस्थाओं ने इकट्ठा होकर मार डाला।
दुख की बात यह है जिस इंसान ने सबसे कमजोर लोगों के जिंदगी के हक की लड़ाई के लिए अपनी पूरी जिंदगी लगा दी, उसे राज्य के सिस्टम ने मार डाला, जिस सिस्टम को आम लोगों की भलाई के लिए बनाया गया है।
यह सारी बातें मैं नहीं कह रहा हूं। वह तमाम लोग कह रहे हैं, जो किसी ना किसी क्षेत्र में भारत के भविष्य को सुंदर बनाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। उन सबका कहना है कि 84 साल के फादर स्टेन स्वामी के साथ जो हुआ वह दुखदाई तो है ही साथ ही साथ भारत के पूरे विचार के लिए शर्मिंदगी की भी बात है कि फर्जी केस में फंसा कर एक बूढ़े इंसान को मरने के लिए छोड़ दिया जाए।
फादर स्टेन स्वामी के केस के बारे में तो बहुत कुछ लिखा जा चुका है। लेकिन इससे थोड़ा हटकर उनकी पूरी जिंदगी को संक्षिप्त में जानने की कोशिश करते हैं।
सबसे पहले यही बता दूं कि मैं यह क्यों कह रहा हूं कि फादर स्टेन स्वामी जैसे लोगों को हमारे समाज का हीरो होना चाहिए? इसकी बड़ी वजह यह है कि वह उस परेशानी से लड़ रहे थे, जो हमारी समाज की सबसे बड़ी परेशानी है। जिस परेशानी के बारे में जानते सब हैं लेकिन जिस से लड़ना कोई नहीं चाहता।
हमारे पास कई तरह के खामियों से सना हुआ समाज है। हमारे पास एक संविधान की मुकम्मल किताब है। लेकिन यह मुकम्मल किताब हमारे समाज का हिस्सा नहीं बन पाती। इसे लागू करने वाले ही इसके साथ सबसे ज्यादा छेड़छाड़ करते हैं। जिसकी वजह से सबसे ज्यादा कठिनाई कमजोर और गरीब लोगों को भुगतनी पड़ती है। इन लोगों के हक मारे जाते हैं। इन लोगों को हक दिलवाना किसी फिल्मी हीरो के बस की बात नहीं। ना ही उन नेताओं के बस की बात है जो पैसे के दम पर संसद में बैठकर देश की नियति संभालने के झूठे दावेदार बन जाते हैं।
यह काम बहुत कठिन है। ऐसा भी हो सकता है कि अपनी पूरी जिंदगी झोंक दी जाए लेकिन हाथ में कुछ भी ना आए। यही काम फादर स्टेन स्वामी पिछले तीन दशकों से झारखंड के आदिवासियों के बीच करते आ रहे थे। नक्सली होने का आरोप लगाकर भारत सरकार के नुमाइंदे झारखंड के आदिवासियों को जेल में भरने का खेल खेलते रहते हैं। कई नौजवानों की जिंदगी इसमें बर्बाद हुई है। कई परिवार बर्बाद हुए है।
इन सभी लोगों को अपना हक दिलवाने के लिए कानून और लेखन के जरिए लड़ाई फादर स्टेनसिलौस लोरदुसामी ने लड़ी है। झारखंड में काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता आलोका कुजूर का बयान न्यूजलॉन्ड्री वेबसाइट पर बहुत पहले छपा था। उनका कहना है कि झारखंड के 500 नौजवान जिन्हें पुलिस ने नक्सली बताकर फर्जी तौर पर गिरफ्तार किया था उनकी रिहाई के लिए फादर स्टेन स्वामी ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी। लंबे समय तक उनके लिए लड़ाई लड़ाई। यही उनकी जिंदगी का मकसद था।
उनका यह काम क्या बताता है? उनका यह काम यही बताता है कि एक व्यक्ति पूरी प्रतिबद्धता के साथ संविधान की किताबों में लिखें नियम कानूनों को जमीन पर उतारने की कोशिश कर रहा है। लोकतंत्र की सबसे अहम लड़ाई लड़ रहा है। इसलिए मीडिया और पैसे के दम पर गढ़े गए किसी भी दूसरे हीरो से ज्यादा बड़ा हीरो है। भारत जैसे समाज के लिए प्रेरणा स्रोत की ज्यादा बड़ी जगह है।
फादर स्टेन स्वामी कारवां को दिए गए अपने इंटरव्यू में जीवन यात्रा के बारे में बताते हैं "मैं तमिलनाडु के त्रीची से हूं। जब मैं कॉलेज में एक विद्यार्थी था तभी से मेरे मन में यह साफ था कि मुझे दूसरे लोगों की सेवा में अपनी जिंदगी जीनी है। मैंने खुद से पूछा कि मुझे कहां काम करना चाहिए जवाब मिला कि मध्य भारत में। यहां पर आदिवासी वैसी जमीन पर रहते हैं, जो पूरी तरह से खनिज संपदा से भरी हुई है। दूसरे संपदा को लूटते हैं और आदिवासियों को कुछ भी नहीं मिलता है। साल 1971 में सोशियोलॉजी में मास्टर डिग्री लेने के बाद जब मैं भारत लौटा तो दो साल के लिए झारखंड में आदिवासियों के बीच काम करने के लिए गया। इन दो सालों में मैंने आदिवासियों के सामाजिक आर्थिक परिस्थिति का अध्ययन किया। मैंने बहुत कुछ सीखा। मैंने अपनी आंखों से देखा कि कैसे बाजार उनके माल के साथ शोषण करता है। मैंने यह भी महसूस किया कि आदिवासी समुदाय के भीतर बराबरी, सामुदायिकता और आपस में मिलकर फैसले लेने की जबरदस्त परंपरा है।
इसके बाद मैं इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस बैंगलोर में लौट आया। यहां मैंने 15 साल बिताए, जिसमें मैं 10 साल खुद डायरेक्टर के पद पर रहा। मेरा कार्यकाल खत्म हो गया तो मैं फिर झारखंड वापस लौट गया। मुझे लगा कि मेरी विशेषज्ञता आदिवासियों के काम आ सकती है। साल 2000 के करीब जब झारखंड राज्य बना तो मैंने बगाईचा नाम से ट्रेनिंग सेंटर बनाया। इस ट्रेनिंग सेंटर का मकसद था कि आदिवासियों और कमजोर वर्ग के अधिकारों को लेकर अध्ययन अध्यापन किया जाए। शोध किया जाए। और इनके हकों की लड़ाई लड़ी जाए। इसी ट्रेनिंग सेंटर के तहत मैं काम करते आ रहा हूं। इस देश में 5 फ़ीसदी लोगों के पास देश की अधिकतर संपदा है। यह असमानता है। सरकार अपने कदमों से इस असमानता को बढ़ाती जा रही है। हम इसी असमानता के खिलाफ लड़ते हैं। हमारा काम कोई जादू की छड़ी नहीं कि हम एक दिन में सब कुछ ठीक कर दें। हम जो कर सकते हैं वह यह है कि हमें केवल अपना काम करना है। पुलिस के झूठे मनगढ़ंत आरोपों से निर्दोष लोगों को बचाना है।”
फादर स्टेन स्वामी ने अपने काम के बारे में खुद लिखा है। उसे पढ़ना चाहिए:
“पिछले तीन दशकों में मैं आदिवासियों और उनके आत्मसम्मान और सम्मानपूर्वक जीवन के अधिकार के संघर्ष के साथ अपने आप को जोड़ने और उनका साथ देने का कोशिश किया हूँ। एक लेखक के रूप में मैं उनके विभिन्न मुद्दों का आकलन करने का कोशिश किया हूँ। इस दौरान मैं केंद्र व राज्य सरकारों की कई आदिवासी-विरोधी और जन-विरोधी नीतियों के विरुद्ध अपनी असहमति लोकतान्त्रिक रूप से जाहिर किया हूँ। मैंने सरकार और सत्तारूढ़ी व्यवस्था के ऐसे अनेक नीतियों के नैतिकता, औचित्य व क़ानूनी वैधता पर सवाल किया है।
मैंने संविधान के पांचवी अनुसूची के गैर-कार्यान्वयन पर सवाल किया है। यह अनुसूची [अनुच्छेद 244(क), भारतीय संविधान] स्पष्ट कहता है कि राज्य में एक ‘आदिवासी सलाहकार परिषद’ का गठन होना है जिसमें केवल आदिवासी रहेंगे एवं समिति राज्यपाल को आदिवासियों के विकास एवं संरक्षण सम्बंधित सलाह देगी।
मैंने पूछा है कि क्यों पेसा कानून को पूर्ण रूप से दरकिनार कर दिया गया है। 1996 में बने पेसा कानून ने पहली बार इस बात को माना कि देश के आदिवासी समुदायों की ग्राम सभाओं के माध्यम से स्वशासन की अपनी संपन्न सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास है।
सर्वोच्च न्यायालय के 1997 के समता निर्णय पर सरकार की चुप्पी पर मैंने अपनी निराशा लगातार जताई है। यह निर्णय [Civil Appeal Nos:4601-2 of 1997] का उद्देश्य था आदिवासियों को उनकी ज़मीन पर हो रहे खनन पर नियंत्रण का अधिकार देना एवं उनकी आर्थिक विकास में सहयोग करना।
2006 में बने वन अधिकार कानून को लागू करने में सरकार के उदासीन रवैया पर मैंने लगातार अपना दुःख व्यक्त किया है। इस कानून का उदेश्य है आदिवासियों और वन-आधारित समुदायों के साथ सदियों से हो रहे अन्याय को सुधारना।
मैंने पूछा है कि क्यों सरकार सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले- जिसकी ज़मीन, उसका खनिज- को लागू करने में इच्छुक नहीं है [SC: Civil Appeal No 4549 of 2000] एवं लगातार, बिना ज़मीन मालिकों के हिस्से के विषय में सोचे, कोयला ब्लाक का नीलामी कर कंपनियों को दे रही है।
भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 में झारखंड सरकार के 2017 के संशोधन के औचित्य पर मैंने सवाल किया है. यह संशोधन आदिवासी समुदायों के लिए विनाश का हथियार है। इस संशोधन के माध्यम से सरकार ने ‘सामाजिक प्रभाव आंकलन’ की अनिवार्यता को समाप्त कर दी एवं कृषि व बहुफसलिया भूमि का गैर-कृषि इस्तेमाल के लिए दरवाज़ा खोल दिया।
सरकार द्वारा लैंड बैंक स्थापित करने के विरुद्ध मैंने कड़े शब्दों में विरोध किया है। लैंड बैंक आदिवासियों को समाप्त करने की एक और कोशिश है क्योंकि इसके अनुसार गाँव की गैर-मजरुआ (सामुदायिक भूमि) ज़मीन सरकार की है और न कि ग्राम सभा की. एवं सरकार अपनी इच्छा अनुसार यह ज़मीन किसी को भी (मूलतः कंपनियों को) को दे सकती है।
हज़ारों आदिवासी-मूलवासियों, जो भूमि अधिग्रहण और विस्थापन के अन्याय के विरुद्ध सवाल करते हैं, को ‘नक्सल’ होने के आरोप में गिरफ्तार करने का मैंने विरोध किया है। मैंने उच्च न्यायालय में झारखंड राज्य के विरुद्ध PIL दर्ज कर मांग की है कि 1) सभी विचारधीन कैदियों को निजी बांड पर बेल में रिहा किया जाए, 2) अदालती मुकदमा में तीव्रता लायी जाए क्योंकि अधिकांश विचारधीन कैदी इस फ़र्ज़ी आरोप से बरी हो जाएंगे, 3) इस मामले में लम्बे समय से अदालती मुक़दमे की प्रक्रिया को लंबित रखने के कारणों के जाँच के लिए न्यायिक आयोग का गठन हो, 4) पुलिस विचारधीन कैदियों के विषय में मांगी गयी पूरी जानकारी PIL के याचिकाकर्ता को दे। इस मामले को दायर किए हुए दो साल से भी ज्यादा हो गया है लेकिन अभी तक पुलिस ने विचारधीन कैदियों के विषय में पूरी जानकारी नहीं दी है।
मैं मानता हूँ कि यही कारण है कि शासन व्यवस्था मुझे रास्ते से हटाना चाहती है। और हटाने का सबसे आसान तरीका है कि मुझे फ़र्ज़ी मामलों में गंभीर आरोपों में फंसा दिया जाए और साथ ही, बेकसूर आदिवासियों को न्याय मिलने के न्यायिक प्रक्रिया को रोक दिया जाए ”।
उनकी मित्र मेरी जॉन ने बंगलोर के अपने दिनों में स्टेन स्वामी की याद दोहराते हुए कहा कि वे एक पाक दिल हैं। निस्पृहता अगर मूर्त रूप ले तो वह स्टेन स्वामी जैसी दिखेगी। सच्चे अर्थ में आध्यात्मिक। द हिंदू अखबार के पूर्व संपादक एन राम भी उनके कॉलेज के दिनों की सहयोगी रहे हैं। उनका कहना है कि शुरुआत से ही अपने मकसद के लिए प्रतिबद्ध व्यक्ति थे। आदिवासी समुदाय में जाकर उनके हकों के लिए शुरू से उनका मकसद था।
आदिवासियों से जुड़ी उनकी याचिकाओं पर वकील रहे पीटर मार्टिन ने उन्हें याद करते हुए कहा कि विडंबना देखिए जो व्यक्ति पूरी जिंदगी झूठे केस में फंसे लोगों के लिए लड़ता रहा उस व्यक्ति को खुद झूठे केस में फंसा कर मार दिया गया।
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