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छापा चित्रों में मणिपुर की स्मृतियां: चित्रकार आरके सरोज कुमार सिंह

सरोज कुमार सिंह का कला सौंदर्य बोध परिष्कृत था। तभी बड़ी गम्भीरता और निष्ठा से ललित कला अकादमी, लखनऊ छापा कला के कार्यशाला में युवा कलाकारों की मदद करते थे नये सृजन के रूपांतरण में।
पोट्रेट ऑफ नेचर, अम्लांकन से छापा चित्र, 50×60cm , चित्रकार: आरके सरोज कुमार सिंह। ABC आर्ट गैलरी के कैटलॉग से साभार
पोट्रेट ऑफ नेचर, अम्लांकन से छापा चित्र, 50×60cm , चित्रकार: आरके सरोज कुमार सिंह। ABC आर्ट गैलरी के कैटलॉग से साभार

उम्दा छापा चित्रकार आरके सरोज कुमार सिंह के अम्लांकन (एचिंग), शिलाछापा चित्र (लिथोग्राफी) और प्रिंट्स में उनका मणिपुर तैरता रहता था। विभिन्न गतिशील पशु आकृतियाँ, जलचर जीव, मोहक वनस्पतियां श्याम-श्वेत रेखाओं में उनके छापा चित्रों में सम्मोहक दृश्य प्रस्तुत करती थीं। यह उनकी नवीनतम कृतियां थी उनके 2008 के दौर की। यह सरोज सिंह की नयी छापा चित्र श्रृंखला थी। वे बहुत उत्साहित थे। सरोज सिंह मणिपुरी थे और लखनऊ राष्ट्रीय कला केन्द्र में छापा कला प्रशिक्षक (सुपरवाइजर) थे ।

चित्रकार आरके सरोज कुमार सिंह

मैं भी उस समय राष्ट्रीय ललित अकादमी के अलीगंज लखनऊ केन्द्र में चित्रकला कार्यशाला में अपना सृजन कर्म कर रही। कुछ दिनों से तनाव में थे। अचानक पता चला कि सरोज सिंह अस्पताल में हैं, उन्हें मस्तिष्क आघात हुआ है। मैं और  श्याम ढूंढते-ढूंढते अस्पताल पहुंचते हैं तो पता चलता है, कि अस्पताल से उन्हें घर भेज दिया जाता है। वे लकवाग्रस्त हो जाते हैं। दरअसल बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान ही मुझे लखनऊ की कला गतिविधियों की जानकारी होती रही।

लखनऊ निवास करने के दौरान भी यहाँ की कला गतिविधियों से और भी ज्यादा साक्षात्कार होता है। लखनऊ की कला का वैभवशाली अतीत रहा है। परंतु वर्तमान समय में कला का पूरा माहौल बदल चुका है। इसका अहसास जब मैं बीएचयू में थी तभी हो गया था। लखनऊ तो केन्द्र था कला में राजनीति करने वाले कलाकारों का, कलाकार गुटों का। सरोज सिंह बेहद सरल थे। वे लखनऊ कला जगत की कुटिल राजनीति से दूर थे। कहा जाय तो उससे पीड़ित थे। यहाँ जिसका गुट सशक्त होगा उसका बोलबाला होगा। आप किसी गुट में नहीं हैं, मतलब 'दो पाटन के बीच में बाकी बचा ना कोय' । शायद यही हश्र हुआ था,  एक संवेदनशील और बढ़िया कलाकार आरके सरोज सिंह का। इसका माने है आज कल कला गौण, कला अभिव्यक्ति गौण। जोड़-घटाव-गुणा महत्वपूर्ण है।

कई महत्वपूर्ण कला विथिकाएं हैं। लेकिन कला प्रेमी की उपस्थिति वहां गौण तो है ही साथ ही, कला के छात्र और नव कलाकारों के अंदर भी नवीन सृजन के अवलोकन की ललक नहीं है, प्रवृति नहीं है।

सरोज सिंह का कला सौंदर्य बोध परिष्कृत था। तभी बड़ी गम्भीरता और निष्ठा से ललित कला अकादमी, लखनऊ छापा कला के कार्यशाला में युवा कलाकारों की मदद करते थे नये सृजन के रूपांतरण में। लखनऊ में 2006 में राष्ट्रीय ललित कला अकादमी की कला विथिका में, मेरी पहली एकल प्रदर्शनी चल रही थी। इस प्रदर्शनी में सरोज जी ने मेरी पूरी मदद की थी। इस प्रदर्शनी में वरिष्ठ कवि शोभा सिंह, कवि लेखक श्याम कुलपत का भी विशेष योगदान था। सरोज सिंह लखनऊ में पहले कलाकार थे जिन्होंने मेरी चित्रों को देखकर खुश हो कर कहा, 'तुम वास्तव में चित्रकार हो'। हालांकि इस प्रदर्शनी में सभी लोग आये थे जैसे विख्यात छापा चित्रकार जयकृष्ण अग्रवाल, मूर्तिकार और पूर्व प्राचार्य , पटना कला एवं शिल्प महाविद्यालय के पाण्डेय सुरेन्द्र, मूर्तिकार पाण्डेय राजीव नयन, अवनिकान्त देव भूतपूर्व सचिव ललित कला अकादमी लखनऊ केन्द्र,  बीना विद्यार्थी सचिव उत्तर प्रदेश ललित कला अकादमी मूर्तिकार कुमार धर्मेन्द्र, नीता कुमार आदि। लेकिन सरोज सिंह का वह कथन और मेरे चित्रों के प्रति उनकी सकरात्मक सोच ने भी मुझे प्रेरित किया कि लखनऊ को अपना सृजन कर्म स्थल बनाने को।

जैसा कि मैं पहले भी लिख चुकी हूं कि भारत में छापा कला कि शुरुआत ब्रिटिश शासन काल में ही हो गई थी। 1855 के आस-पास से भारत के कला विद्यालयों में उकेरन (एनग्रेविंग) , अम्लांकन (एचिंग) और शिला लेखन (लिथोग्राफी) जैसी विधाएं पढ़ाई जाती रही हैं। छापा कला कि इन विधियों द्वारा आप काफी हद तक चित्रकला के नियमों का पालन करते हुए अपनी भावात्मक कल्पनाओं को साकार कर सकते हैं। प्रकिया जटिल और श्रमयुक्त जरूर है,  लेकिन आप मनोवांछित फल पा सकते है।

उत्तर प्रदेश के छापा चित्रकारों की बात करें तो सर्व प्रथम ललित मोहन सेन ने कुछ लिनोकट व काष्ठ छापा में काम किया। इसके बाद जयकृष्ण अग्रवाल ने जो खास्तगीर की प्रेरणा से इस क्षेत्र में आये और लखनऊ के छापा चित्रकला को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाई। उनके सफल छात्रों में वरिष्ठ काष्ठ छापा चित्रकार श्याम शर्मा, लखनऊ के ही वरिष्ठ चित्रकार और कला समीक्षक अखिलेश निगम (प्रिंटाज के अविष्कारक), आरके सरोज सिंह, सावित्री पाल आदि रहे हैं। इनमें सावित्री पाल की कुछ वर्ष पहले ही मृत्यु हो गई थी और सरोज सिंह को हाल ही में कोरोना वायरस ने हमसे छीन लिया।

पोट्रेट ऑफ नेचर, अम्लांकन से छापा चित्र, 50×80 cm , चित्रकार: आरके सरोज कुमार सिंह। ABC आर्ट गैलरी के कैटलॉग से साभार

सरोज सिंह के छापा चित्र देश के विशेषकर उत्तर प्रदेश और मणिपुर के कला जगत में चर्चा का विषय बने हुए थे। वे एक कर्मठ और व्यवहार में बेहद ईमानदार कलाकार थे। तभी तो सृजन कर्म में अपनी सफलता और ग्राफिक्स कला में अपनी रूचि को बढ़ाने का श्रेय वे देश के वरिष्ठ छापाकार प्रो. सोमनाथ होर, प्रसिद्ध चित्रकार आरएस बिष्ट और जय कृष्ण अग्रवाल को देते थे। सरोज सिंह ने अपनी कला संबंधी शिक्षा 1973 इम्फाल से , 1975 -"1978 तक छत्रपति शाहूजी महराज विश्वविद्यालय, बड़ौदा से और 1983 में लखनऊ विश्वविद्यालय के कला महाविद्यालय से बीएफए किया।

कलाकार की कृतियाँ उसके निर्धारित जीवन मूल्यों और जीवन संघर्ष से ही उत्पन्न होते हैं।

इसके फलस्वरूप उनके कलासृजन में कई दौर (फेज) आते हैं। यह सरोज जी के कामों को देख कर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। बड़ौदा में उन्होंने मानव मुखाकृति (भावनात्मक) पर आधारित बहुत सारे लिथोप्रिंट बनाये। पर्वतीय क्षेत्र मणिपुर के होने के कारण सरोज सिंह को प्रकृति से बेहद लगाव था,  लखनऊ में उन्होंने बहुत सारे एचिंग प्रिंट निकाले जिसमें प्रकृति का सुन्दर रूपायन है।

अपनी जन्मभूमि इम्फाल जहां प्रकृति के सुरम्य सानिध्य में ही उनका बचपन और युवावस्था गुजरा उनकी स्मृतियों को उन्होंने अपने अंत:करण में जीवित रखा। खासकर वहां की जनजातीय संस्कृति उनके जीवन जीने का अपना ढंग,उन्हें रोमांचित करते रहे।

उन्होंने जनजातीय मातृसत्तात्मक स्त्री प्रधान समाज में मौजूद स्त्री आत्मविश्वास, उनका सौंदर्य, उनमें समाहित ऐंद्रियता और प्रेम पूर्ण भावों  को दर्शाते हुए कई लिथोप्रिंट और एचिंग प्रिंट निकाले। 1985 - 87 के दौरान उन्होंने जलीय जीवों खासकर मछलियों पर कई प्रिंट निकाले। जिन्हें काफी पसंद किया गया। इस तरह सरोज सिंह भूमि से जुड़े कलाकार थे, इसलिए उनमें प्रचुर कल्पनाशीलता थी, इसीलिए उनकी कलाकृतियों में मौलिकता की समृद्धि है।

1995 में सरोज जी अंतरराष्ट्रीय लिथोग्राफी कैम्प में शामिल हुए। जो तमरींद इंस्टीट्यूट,न्यू मैक्सिको, (यूएसए) और ललित कला अकादमी नई दिल्ली के तत्वावधान में आयोजित हुआ था । इसमें उन्होंने पशुओं, विशेषकर घोड़ा और पशुकंकालों पर आधारित कई प्रिंट निकाले। इनके बारे में सरोज जी का कहना था, ''भारत में रेल यात्रा के दौरान खेतों में पशु अस्थियां बिखरी दिखाई पड़ती हैं, जिसे एक प्रकार से 'पशु अस्थियों की फसल' ही कह सकते हैं, जो मृत्यु उपरांत देह निरर्थकता का बोध कराती हैं।"

मातृभूमि मणिपुर से दूर रहकर भी सरोज वहां से दूर नहीं हुए, तभी तो वे वहां के सामाजिक बदलाव उथल-पुथल आदि पर उनका ध्यान रहा। 1980 से 2000 तक के वर्षों में मणिपुर के सामाजिक, राजनीतिक जीवन में जो परिवर्तन आया था, आम आदमी पर पुलिस का अत्याचार,  युवाओं का उच्छृंखल- उन्मुक्त जीवन उन्हें पतन की ओर ले जा रहा था। सरोज के संवेदनशील मन को उद्वेलित करती रही। उनके द्वारा 2006 में एचिंग एक्वाटिंट माध्यम में बनाई गई बड़ी पेंटिंग 'मोन्सटर' (दानव) शीर्षक चित्र में मानव और पशु आकृतियों को विरूपित रूप में अंकन किया गया है। यह प्रिंट राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी में चयनित किया गया था।

सरोज जी ने मुख्यतया लिथोग्राफी और एचिंग माध्यम में काम किया है। लिथोग्राफी में विशेष तरह के जमाए हुए शिला पर ऐसिड और रेजिन के प्रतिक्रिया ( रियेक्शन) के फलस्वरूप जो प्रभाव उत्पन्न होता है उसे लिथोइंक द्वारा रोलरमशीन के द्वारा कागज पर छापा जाता है। शिला पर रेखाचित्र आदि का अंकन एक विशेष प्रकार के पेंसिल ( लिथोस्टीक ) से किया जाता है। वहीं एचिंग में जिंक प्लेट पर नाइट्रिक एसिड और रेजिन के प्रतिक्रिया के द्वारा प्रिंटिंग इंक से विशेष प्रकार के कागज पर प्रिंट निकालते हैं।

सरोज जी ने श्वेत-श्याम के अतिरिक्त रंगीन प्रिंट भी बनाए। कला जगत में उनकी कृतियों को लोकप्रियता भी मिली। उनके द्वारा की गयी एकल और समूह प्रदर्शनियों में चित्र सराहे भी गए। प्रसिद्ध कला समीक्षक केशव मल्लिक और कृष्ण नारायण कक्कड़ ने भी इनकी कला पर अपनी लेखनी चलाई । देश- विदेश में इनके छापा चित्र संग्रहित हैं। आरके सरोज सिंह तो नहीं रहे लेकिन उनके परिवार में उनकी पत्नी एक बेटा और एक बेटी है।

(लेखिका डॉ. मंजु प्रसाद एक चित्रकार हैं। आप इन दिनों लखनऊ में रहकर पेंटिंग के अलावा ‘हिन्दी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)  

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