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जया अप्पा स्वामी : अग्रणी भारतीय कला समीक्षक और संवेदनशील चित्रकार

जया अप्पासामी शुरुआत में टेम्परा शैली में चित्रण करती रहीं। चीन में प्रवास फलस्वरूप उनका झुकाव जलरंगों की ओर हुआ। परंतु दिल्ली आने पर आधुनिक चित्रकला की ओर उन्मुख  हुईं।
जया अप्पा स्वामी : अग्रणी भारतीय कला समीक्षक और संवेदनशील चित्रकार

कुछ ऐसी भी महिला कलाकार रही हैं, या हैं जिन्होंने अपना सारा जीवन कला के लिए समर्पित कर दिया है। उन्होंने हमेशा प्रचार, शोर-शराबे और ग्लैमर से दूर नितांत कला या कला लेखन को अपने भावों विचारों और कल्पना की अभिव्यक्ति बनाया। उनके रास्ते की कठिनाइयां उन्हें डिगा नहीं पाईं। ऐसी ही थीं प्रतिभाशाली चित्रकार, कला लेखक, कला संग्राहक और कला मर्मज्ञ सुश्री जया अप्पासामी। वह देश की प्रथम महिला कला लेखक थीं जिन्होंने अपने कला लेखन से प्राचीन भारतीय कला को समृद्ध तो किया ही, साथ ही उन्होंने आधुनिक भारतीय कला के विकास में उत्कृष्ट भूमिका निभायी।

जया अप्पासामी, साभार : द क्रिटिकल वीजन', प्रकाशन, ललित कला अकादमी नई दिल्ली

जया अप्पासामी का जन्म चेन्नई (मद्रास) में 31 दिसंबर 1918 में हुआ था। उनकी मां प्रसिद्ध कुमारप्पा परिवार की थीं। वे सुशिक्षित और दयालु महिला थीं। उनके पिता मद्रास न्यायपीठ में न्यायमूर्ति थे। वे काफी प्रगतिशील पिता थे तथा दक्षिण भारतीय सामाजिक परिवेश के विकास में उनका उल्लेखनीय योगदान था। उनका परिवार ईसाई धर्म में विश्वास करने वाला परिवार था। जया के दो भाइयों ने अपना जीवन महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश सेवा के लिए अर्पित कर दिया था। जया अप्पासामी ने अंग्रेजी भाषा में ही लेखन किया है, क्योंकि उनके घर में यही भाषा बोली जाती थी और उनकी शिक्षा भी अंग्रेजी माध्यम में ही हुई थी।

1935 के दशक में विद्यालयीन शिक्षा के बाद जया ने शांति निकेतन में दाखिला लिया। उस समय इंदिरा नेहरू भी वहां पढ़ रहीं थीं। शांति निकेतन में विश्वविद्यालय स्तर की पढ़ाई न होने की वजह जया मद्रास लौट आईं और अपनी माता जी के इच्छानुसार बीएससी की पढ़ाई पूरी की बेहतरीन प्रदर्शन के साथ।

जया का मन रमा था चित्रकला में। अतः उन्होंने 1945 में शांति निकेतन के कला भवन में दाखिला लिया। उस समय कला गुरु नंदलाल बोस, विनोद बिहारी मुखर्जी और रामकिंकर बैज जैसे महान कलाकार शांति निकेतन की शान थे। उनकी भाषा मुख्य रूप से बांग्ला थी और जया की शिक्षा अंग्रेजी में थी इस वजह से उन्हें काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। वे परिश्रमी और मेधावी थीं इसलिए उन्होंने रविन्द्र साहित्य पढ़ा और बांग्ला भाषा को समझने और पढ़ने में सफलता हासिल की। ''उन दिनों वहां सत्यजीत राय, पृथ्वीश नियोगी नंदिता कृपलानी, कमला चौधरी, डॉ. आरएन सेन आदि छात्र-छात्राएं थें। ' जया ' दो चार मित्रों के साथ अपने अध्ययन के विषय पर विचार-विमर्श, आलोचना, प्रतिक्रिया, समीक्षा और अध्ययन करती रहीं’। ---दिनकर कौशिक , समकालीन कला ,अंक- नवंबर 84/मई 85 , पत्रिका , राष्ट्रीय ललित कला अकादमी।

नंदलाल बोस को टेम्परा शैली अत्यंत प्रिय थी। अपने छात्रों को वे टेम्परा शैली में चित्र सृजन के लिए प्रेरित करते। क्योंकि टेंपरा माध्यम में रंग जल्दी सूख जाते हैं। रंगों के समतल सतह पर इच्छानुसार, बारीक, मोटी रेखाएं गतिशील ढंग से चित्र के विषयानुसार अंकित की जा सकती हैं। इस विधि में सुधार की ज्यादा गुंजाइश रहती है। जबकि तैल माध्यम जल्दी सूखता नहीं। गीले रंग पर दूसरा रंग चढ़ाने पर रंग गंदे हो जाते हैं। सबसे बड़ी बात इसमें गतिशील बारीक रेखाएं दिखाना कठिन है। अतः नंदलाल बोस तैल माध्यम को बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। भारत, चीन, जापान आदि एशियाई देशों में टेम्परा चित्रण काफी लोकप्रिय था। जया अप्पासामी के छात्र जीवन के अधिकांश चित्र टेम्परा माध्यम में ही हैं।

कमल के फूलों के तालाब के किनारे महिला। चित्रकार : जया अप्पासामी, साभार, द क्रिटिकल वीजन', प्रकाशन ललित कला अकादमी नई दिल्ली

1945 में कला भवन से अभिज्ञान -पत्र प्राप्त करने के बाद उन्होंने बनारस के बसंत कन्या महाविद्यालय में शिक्षक पद को सुशोभित किया। परंतु‌ कुछ समय बाद वे चीन के च्यांग-काई- शेक की राष्ट्रीय सरकार द्वारा 1947 में  छात्रवृति मिलने के बाद वे चीन चित्रकला सीखने गईं। ' जया के साथ पांच और भारतीय छात्र थे। एक थे चित्रकार निहार रंजन चौधुरी, दूसरे थे भाषा विशारद अमितेन्द्रनाथ टैगोर, तीसरे दर्शन शास्त्री वेंकटरामन, चौथे सतिरंजन सेन और पांचवें संस्कृत-चीनी- भाषाविद् परांजपे। ...इसी समय चीन में गृह युद्ध शुरू हो चुका था। ...इन छह जनों को शेष कुछ दिन अनिश्चितता,परिमित अर्थ और साधन–कृच्छता में बिताने पड़े। जया इन सभी को मानसिक सहारा देतीं, स्त्री-सुलभ व्यवहार कुशलता दिखाकर..., ...छोटी-मोटी बीमारी के समय सेवा करतीं...। जया ने चीनी भाषा भी सीखना शुरू कर दिया था।- दिनकर कौशिक, साभार-समकालीन कला।

चीन में रहने के दौरान जया ने अपने विनम्र और आत्मीय भरे व्यवहार से वहां के कलाकारों का दिल जीता। उन्होंने ज्यू- पे- यों और और ची -पाय शी जैसे महान कलाकारों के निर्देशन में रेखा प्रधान तुलिका संचालित चित्रण शैली सीखी। इस दौरान के जया के चित्र फूल-पत्तियों और चिड़ियों के चित्रण और चीनी अक्षरांकण कला (चाइनीज कैलिग्राफी) के सुंदर उदाहरण हैं। उन्होंने तीन वर्ष चीन में श्रम साध्य चीनी चित्रकला का अध्ययन और अभ्यास किया। चीनी क्रांति के परिवर्तनकारी माहौल से ‌रूबर होकर, अमेरिका-यूरोप होती हुई भारत आईं। उन्होंने न्यूयॉर्क आदि देशों में अपने चित्रों की प्रदर्शनी भी की थी।

भारत में स्वतंत्रता के बाद कला के क्षेत्र में उलट-पलट का वातावरण आरंभ हो गया था। कलाकारों में होड़ सी लग गई थी आश्रयदाताओं की कृपा दृष्टि पाने की, उपकृत होने की। सीधी-सादी जया निराश ही हो गईं। ऐसे में जयपुर के महारानी महाविद्यालय में उन्होंने प्राध्यापिका के बतौर नियुक्ति मिल गई। परन्तु वहां वे टिक नहीं पाईं।

1953 में दिल्ली पॉलीटेकनिक के विभाग प्रमुख प्रोफेसर भवेश सान्याल के सहयोग से प्राध्यापिका के पद पर आमंत्रित किया गया। दिल्ली में उनके जीवन में स्थायित्व आया। जया अप्पासामी कला समीक्षक के रूप में ख्याति प्राप्त करने लगीं। 'हिन्दुस्तान टाईम्स' में उन्होंने नियमित समीक्षाएं लिखीं।

दिल्ली पॉलिटेकनिक में अध्ययन करने वाले ज्यादातर छात्र कम पढ़े लिखे और सामान्य वर्ग के होते थे। जया उन्हें बड़े धैर्य से  सरल भाषा में कला इतिहास समझाया करती थीं। उन्होंने छात्रों को कला तकनीक भी बड़े धैर्य से सिखाई।

सैयां,1947-48, चित्रकार : जया अप्पासामी। साभार, समकालीन कला, अंक-नवंबर 84 /मई 85

जया अप्पासामी शुरुआत में टेम्परा शैली में चित्रण करती रहीं। चीन में प्रवास फलस्वरूप उनका झुकाव जलरंगों की ओर हुआ। परंतु दिल्ली आने पर आधुनिक चित्रकला की ओर उन्मुख  हुईं। अब तैल रंग माध्यम उन्हें भाने लगा। उनके चित्रों में एकल महिला के साथ प्रकृति के विभिन्न रूप, पहाड़,नदी, पेड़ों के झुंड,आदि वासंती पीले रंग में,विस्तृत नीला आसमान, चटख लाल और भूरे रंगों वाला पलाश, मौसम में आये बहार को दिखाते हैं।

जया के चित्रों में ज्यादातर एकल महिला आकृति बहुत ही कोमल, रागात्मक या मार्मिक ढंग से उपस्थित रहती हैं जो उनके एकल जीवन का द्योतक हैं।

जया अप्पासामी का कला लेखन अंग्रेजी भाषा में रहा लेकिन बहुत समृद्ध रहा है। ''अवनींद्र नाथ टैगोर एंड द आर्ट ऑफ हिज टाईम्स'' उनका प्रथम प्रकाशन है, जिसे 1968 में ललित कला अकादमी ने प्रकाशित किया था। दिनकर कौशिक के अनुसार, ''भाषा की सरलता,गहरी सूझबूझ एवं अनूभूतिपूर्ण रसग्रहण इस पुस्तक का विशेष गुण है''।

अन्य पुस्तकों में 'माडर्न इंडियन स्कल्पचर' प्रकाशन 1979, इंडियन पेंटिंग्स ऑव ग्लास (1980) उल्लेखनीय हैं। ललित कला अकादमी नई दिल्ली ने उनके महत्त्वपूर्ण लेखों का संग्रह 'द क्रिटिकल वीजन'  शीर्षक से 1985 में प्रकाशित किया। जिसके संपादक आरके भटनागर थे। वास्तव में जया अप्पासामी महान कला लेखक और चित्रकार थीं।

(लेखिका डॉ. मंजु प्रसाद एक चित्रकार हैं। आप इन दिनों लखनऊ में रहकर पेंटिंग के अलावा ‘हिन्दी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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