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प्रशांत भूषण मामला और बदलाव की उम्मीद
प्रशांत भूषण उन मुट्ठी भर न्यायविदों की लड़ाई लड़ रहे हैं जो न्यायपालिका को अधिक उत्तरदायी, पारदर्शी और जनोन्मुख बनाना चाहते हैं।
डॉ. राजू पाण्डेय
27 Aug 2020
 प्रशांत भूषण मामला और बदलाव की उम्मीद

प्रशांत भूषण के समर्थन में कुछ अत्यंत विद्वतापूर्ण आलेख पढ़ने को मिले। इन आलेखों में विश्व के विभिन्न देशों में न्यायालय की अवमानना को लेकर प्रचलित अवधारणाओं, कानूनी प्रावधानों और इनके क्रियान्वयन की प्रक्रियाओं के गहन मंथन के बाद स-सन्दर्भ यह बताया गया है कि भारत का सुप्रीम कोर्ट उदार न्यायिक परंपराओं की अनदेखी कर रहा है और उसका व्यवहार न्यायालय की गरिमा के विपरीत है। 

 प्रशांत भूषण के समर्थन में लिखे गए यह शोधपरक आलेख हमारी न्याय व्यवस्था में व्याप्त विराट अराजकता, घनघोर भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद की यदि अनदेखी नहीं करते हैं तब भी जाने अनजाने  प्रशांत भूषण प्रकरण में इनकी भूमिका को गौण बना देते हैं और इन आलेखों को पढ़ने से कभी कभी यह आभास होता है कि सुप्रीम कोर्ट का वर्तमान आचरण एक आकस्मिक प्रतिक्रिया है तथा यह प्रकरण मानव व्यवहार की जटिलताओं से अधिक संबंधित है। यह एक मेधावी वकील और शायद उससे कम प्रतिभाशाली न्यायाधीशों के बीच अहं का टकराव है एवं दोनों को- और विशेष रूप से न्यायाधीशों को- यदि उनके पद की गरिमा और दायित्वों का स्मरण दिलाया जाए तो इस अप्रिय विवाद का सुखद पटाक्षेप हो सकता है।

जबकि वस्तु स्थिति यह है कि लोकतंत्र पर होने वाले आक्रमणों से रक्षा के लिए एक सशक्त और अभेद्य दुर्ग की भांति खड़ा सुप्रीम कोर्ट अब अपनी अंतर्निहित आत्मघाती कमजोरियों के कारण इतना जीर्ण हो चुका है कि चंद शब्दों के ट्वीट से इसके धराशायी होने की स्थिति आन पड़ी है।

न्यायपालिका का अंग रह चुके न्यायविदों द्वारा समय समय पर की जाने वाली आक्रोश एवं असंतोष की अभिव्यक्ति न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार और पक्षपात के विषाक्त वातावरण की प्रामाणिक और निर्णायक रूप से तस्दीक करती रही है। सामान्य लोक व्यवहार में जब यह उक्ति बार बार दुहराई जाती है कि कोर्ट कचहरी के चक्कर में पड़ना ठीक नहीं- पूरी जिंदगी बीत जाएगी, सारी जमा पूंजी खर्च हो जाएगी और हासिल कुछ नहीं होगा तब हम न्यायपालिका की निस्पृह, निर्मम निस्सारता को ही स्वर दे रहे होते हैं। सामंत युगीन राजाओं के न्याय, अंग्रेज शासकों के न्याय और स्वतंत्र भारत की जनता के पैसे से पालित पोषित न्यायाधीशों के न्याय में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आया है और न्याय मोटे तौर पर शासक की इच्छा को उचित ठहराने का साधन बना है। न्यायालय संपन्न और समर्थवान के हर उचित अनुचित कृत्य को संरक्षण देने के केंद्र प्रतीत होते हैं।

न्यायपालिका के भ्रष्टाचार के विषय में यह मानना कि इसका प्रसार लोअर जुडिशरी तक है और उच्चतर अदालतें इससे लगभग मुक्त हैं दरअसल एक आत्मप्रवंचना है जो न्यायपालिका में उच्चतर पदों पर रह चुके लोगों को प्रीतिकर लगती है- इस तरह वे न्यायपालिका के भ्रष्टाचार को स्वीकार भी कर लेते हैं और स्वयं को उससे अलग भी कर लेते हैं।

बहुत सारे लोग यह विश्वास करते हैं और उनका यह विश्वास अकारण नहीं है कि उच्चतर अदालतों का भ्रष्टाचार परिष्कृत और परिमार्जित है और यह नकद के नग्न आदान प्रदान से कहीं दूर दो शक्ति केंद्रों द्वारा एक दूसरे को उपकृत करने के रूप में दिखाई देता है-न्यायपालिका के कर्ताधर्ताओं के प्रति राजनीति या प्रशासन का कोई शीर्षस्थ व्यक्ति इनके द्वारा की गई अपनी सहायता के लिए आभारी होता है। न तो यह सहायता न्याय संगत होती है न व्यक्त किया गया आभार नीति सम्मत होता है।

अनेक आलेखों में बहुत तार्किक रूप से यह सिद्ध किया गया है कि जिस ट्वीट या बयान के आधार पर प्रशांत भूषण को दंड का पात्र माना गया है उसमें कोई ऐसी बात नहीं है जिससे न्यायालय की अवमानना होती हो। न्यायालय ने इस मामले में असाधारण रूप से हड़बड़ी दिखाई है, परिस्थितियों के सामान्य होने तक प्रतीक्षा की जा सकती थी जब वर्चुअल के स्थान पर  भौतिक सुनवाई संभव हो पाती। यदि प्रशांत भूषण के आरोपों का परीक्षण कर उनके असत्य पाए जाने पर उन्हें दंडित किया जाता तो कोई विवाद ही उत्पन्न नहीं होता।

पुनः इन आलेखों का मूल भाव यह है कि सर्वोच्च न्यायालय एक बहुत बड़ी भूल करने जा रहा है और जन दबाव उसे ऐसी गलती करने से रोक सकता है।

जिस ढंग से प्रशांत भूषण का प्रकरण आगे बढ़ रहा है उससे तो यही लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रशांत भूषण पर अदालत की अवमानना का आरोप लगाने के लिए एक कमजोर मामले का चयन, हड़बड़ी में सुनवाई और फिर दोषी माना जाना अनायास नहीं था बिल्कुल उसी तरह जिस तरह न्यायालय का यह विश्वास कि न्यायाधीश ही न्याय पालिका का पर्याय है एक खास मकसद की ओर इशारा करता है। यदि यह मकसद न्यायपालिका के कामकाज पर बार बार नुक्ताचीनी करने वाले और जजों की दृष्टि में एक बड़बोले वकील को सबक सिखाने का है तो इसे व्यक्तिगत वैमनस्य का परिणाम माना जा सकता है। किंतु यदि यह राजसत्ता की सरपट और अंधाधुंध दौड़ में बार बार अवरोध पैदा करने वाले विरोध के एक प्रखर स्वर को ऐलानिया ढंग से कमजोर करने और यह जतलाने की कोशिश है कि यदि हम चाहें तो बिना समुचित कारण के भी तुम्हें तुम्हारी हद दिखा सकते हैं तो चिंता स्वाभाविक है।

अभी तक कमिटेड जुडिशरी के विषय में चर्चाएं होती थीं। किंतु अब अनेक सवाल उठ रहे हैं। क्या जुडिशरी को इस सीमा तक कमिटेड बनाया जा सकता है कि वह सरकार के किसी सीबीआई, ईडी या इनकम टैक्स नुमा विंग की तरह कार्य करने लगे? अभी तक न्यायाधीशों को मैनेज करने के किस्से सुनाई देते थे, क्या पूरी न्याय पालिका को ही या उसके एक बड़े भाग को मैनेज करना संभव है? 

क्या राजसत्ताएं अब न्यायालय की सर्वोच्चता का लाभ उठाकर ऐसे आर्थिक सामाजिक फैसलों को स्वीकार्य बनाने में लगी हैं जिनको लेकर जनता में असंतोष है? क्या अपने प्रयासों में उन्हें सफलता मिल रही है?

पिछले कुछ महीनों में वर्तमान सरकार ने जो फैसले लिए हैं उनका दूरगामी प्रभाव भारतीय गणतंत्र के स्वरूप और उसकी प्रकृति पर पड़ना है। संभव है कि आने वाले दिनों में बहुमत वाली सरकार संविधान में ऐसे परिवर्तन करे जो बहुसंख्यक वर्ग के वर्चस्व की स्थापना करें और अल्पसंख्यक धीरे धीरे दोयम दर्जे के नागरिक बना दिए जाएं।

यह भी संभव है कि उत्तर कोरोना काल के नए भारत में तकनीकी में निष्णात संपन्न वर्ग का वर्चस्व हमारे आर्थिक-सामाजिक जीवन पर स्थापित हो तथा अप्रत्यक्ष रूप से गुण तंत्र की वापसी हो जाए।  ऐसा विशाल अशिक्षित-अकुशल-असंगठित-असहाय आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़े जन समुदाय के अधिकारों में कटौती द्वारा ही मुमकिन हो सकता है। अनेक ऐसे निर्णय पिछले दिनों में-कभी सरकार द्वारा तो कभी न्यायपालिका द्वारा- लिए गए जिनका प्रभाव अनुसूचित जाति और जनजाति के अधिकारों को संरक्षण देने वाले वैधानिक प्रावधानों को कमजोर करने वाला था किंतु जन असंतोष की तीव्रता को देखकर इन्हें वापस लेना पड़ा।

कोरोना का हवाला देकर निजीकरण को बढ़ावा देने वाले अनेक ऐसे फैसले लिए जा रहे हैं जिनका प्रभाव हमारे प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित दोहन,  पर्यावरण के विनाश और आदिवासियों के विस्थापन के रूप में दिखाई देगा। संविधान की संरचना और संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार इन परिवर्तनों के मार्ग में अवरोध की भांति खड़े हैं। इन जनविरोधी परिवर्तनों को क्रियान्वित करने हेतु कमिटेड जुडिशरी द्वारा  संवैधानिक प्रावधानों की सरकार के मनोनुकूल व्याख्या भर से काम नहीं चलेगा, नया संविधान रचना पड़ेगा। यदि नया संविधान गढ़ने का विवादास्पद प्रयास किया जाता है तो न्यायपालिका के विशेष सहयोग के बिना इसकी सफलता संदिग्ध होगी।

न्यायाधीशों की नियुक्तियों, पदस्थापनाओं और पदोन्नति में सरकार का घोषित-अघोषित, नियमतः-जबरिया, उचित-अनुचित, सैद्धांतिक-व्यवहारिक हस्तक्षेप हमेशा से रहा है। वेतन भत्तों और दीगर सुविधाओं के लिए भी सरकार पर न्यायाधीशों की निर्भरता रहती ही है। हर सरकार की इच्छा रहती है कि न्यायपालिका बहुत ज्यादा अड़ंगेबाज और पंगेबाज न हो। यदि न्यायाधीश धन और शक्ति की लालसा जैसी मानवीय दुर्बलताओं से ग्रसित हैं तो स्वाभाविक रूप से वे गलतियां करते हैं और मीडिया को उन पर निशाना साधने और सरकार को उन पर शिकंजा कसने का मौका मिलता है।

स्वयं को सार्वजनिक जीवन में संयमित, मर्यादित, अनुशासित तथा सामाजिक- राजनीतिक कार्यक्रमों से अलग-थलग रखना न्यायाधीशों की विवशता है- इस पेशे का ऑक्यूपेशनल हैजर्ड है। या दूसरे शब्दों में कहें तो यह समाज द्वारा स्वयं को मिलने वाले असीमित मान सम्मान की कीमत है जो न्यायाधीशों को चुकानी पड़ती है। किंतु जब कोई न्यायाधीश अपने अंदर उठ रही बालोचित अथवा युवकोचित तरंगों की बिंदास अभिव्यक्ति को अपने निजी जीवन का हिस्सा मानता है तो वह जस्टिस बोबडे की भांति हार्ले डेविडसन बाइक पर सवार हो जाता है और आलोचना तथा टीका टिप्पणी को निमंत्रित करता है।

स्थिति तब और जटिल हो जाती है जब ऐसी टीका टिप्पणियों पर निर्णायक रूप से अंकुश लगाने के लिए न्यायपालिका कमर कस लेती है और अपने आलोचकों को कठोर संदेश देने के लिए प्रशांत भूषण जैसी शख्सियत का चयन करती है जो न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार का सबसे मुखर और प्रखर आलोचक रहा है। न्यायपालिका अपने किसी भी आचरण से अगर ऐसे निरंकुश और स्वेच्छाचारी लोगों का गिरोह प्रतीत होने लगे जो अपनी उच्छृंखलता और कदाचरण को उजागर करने वालों का मुँह बंद करने के लिए स्वयं को प्रदत्त शक्तियों का दुरुपयोग करना अपना विशेषाधिकार समझते हैं तब चिंता तो होगी ही। 

जब न्यायपालिका से जुड़े शीर्ष जन न्यायपालिका की गरिमा की रक्षा और आपसी भाईचारे को बनाए रखने के नाम पर न्यायपालिका के असली चरित्र को उजागर करने वाले अपने ही साथियों को सबक सिखाने पर आमादा हो जाते हैं तब इनका व्यवहार भय उत्पन्न करने लगता है।

आखिर यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की न्यायपालिका है जिस पर संविधान और कानून की व्याख्या एवं रक्षा का उत्तरदायित्व है कोई संगठित अपराधी गिरोह नहीं जहाँ संगठन की गोपनीयता भंग करने वालों को कठोर सजा दी जाती है। न्यायाधीशों पर जब भी भ्रष्टाचार और कदाचरण के आरोप लगते हैं, तब हम उन्हें अभूतपूर्व एकता का प्रदर्शन करते हुए आरोपकर्ता पर हमलावर होते देखते हैं। स्वयं पर लगे आरोपों की चर्चा मात्र से ही न्यायाधीश  असहज हो जाते हैं और उनकी कोशिश अपारदर्शी एवं गोपनीय आंतरिक जांच द्वारा खुद को जल्द से जल्द क्लीन चिट देने की रहती है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर लगे यौन दुराचरण के आरोपों की जांच का हालिया उदाहरण सबके सामने है जब मुख्य न्यायाधीश के पद पर खुद को बरकरार रखते हुए एवं कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न संबंधी कानून में वर्णित प्रक्रिया का पालन न करते हुए जांच की गई और स्वयं को क्लीन चिट भी दे दी गई। आरोप सत्य थे या असत्य यह एक जुदा मसला है किंतु स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने का यह तरीका अटपटा और आपत्तिजनक ही था।

प्रशांत भूषण मामले की जटिलता यह है कि इसका सुखद पटाक्षेप तभी संभव है जब इसे एक वकील और कुछ न्यायाधीशों के अहम के टकराव का रूप दे दिया जाए। एक ऐसा प्रकरण जिसमें दोनों पक्षों ने गुस्से में अपनी सीमाएं लांघी हैं और चूंकि प्रशांत भूषण वकील हैं अतः जजों की तुलना में क्षमा याचना करना उनके लिए  अधिक सहज और सरल होगा। उनके ऐसा करने पर न्यायाधीश गण अपनी हठधर्मिता त्यागते हुए तत्काल उन्हें क्षमादान देकर खुद को स्वयं द्वारा ही पैदा गई इस अटपटी स्थिति से निकाल सकेंगे।

किंतु प्रशांत भूषण ने स्वयं को उस विचारधारा के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत किया है जो हमारे लोकतंत्र की मजबूती के लिए असहमति की बेबाक अभिव्यक्ति को आवश्यक मानती है और यह विश्वास करती है कि सरकार और उत्तरदायित्व के पदों पर आसीन लोगों से प्रश्न पूछकर ही उनकी कार्य प्रणाली को बेहतर बनाया जा सकता है। हर सवाल आरोप नहीं होता और इन सवालों के जवाब देना सफाई देने जैसा तो बिल्कुल नहीं है। प्रशांत भूषण उन मुट्ठी भर न्यायविदों की लड़ाई लड़ रहे हैं जो न्यायपालिका को अधिक उत्तरदायी, पारदर्शी और जनोन्मुख बनाना चाहते हैं- एक ऐसी न्यायपालिका जो लोकतंत्र पर आने वाले संकटों को दूर करे और उस आम आदमी के लिए सोचे जो लोकतंत्र का मूलाधार है। लोकतंत्र को जीवित और जाग्रत बनाए रखने का उत्तरदायित्व बोध प्रशांत भूषण को अपनी बात पर अडिग रहने की शक्ति देगा।

यदि यह मामला अधिक दिन तक चलता है तो मीडिया ट्रायल की आशंका बनी रहेगी। सोशल मीडिया पर ऐसी पोस्टों की शुरुआत हो चुकी है जो प्रशांत भूषण को राष्ट्र द्रोही, आतंकवादियों और नक्सलियों का हिमायती, विरोधी दलों के लिए काम करने वाला वकील आदि के रूप में प्रस्तुत कर रही है। हो सकता है आने वाले दिनों में संबंधित न्यायाधीशों की गौरवशाली पृष्ठभूमि की चर्चा इन वायरल पोस्टों में हो  और उनकी राष्ट्र भक्ति को प्रमाणित करने वाले कुछ फैसलों की सूची भी प्रस्तुत की जाए।

शायद यह भी कहा जाए कि न्यायपालिका का धीरे धीरे शोधन हो रहा है और आतंकवादियों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए रात को खुलने वाले सुप्रीम कोर्ट का स्वरूप इतना बदल गया है कि वह अब राम मंदिर मामले को देशहित के अन्य मामलों पर वरीयता देते हुए इसकी लगातार सुनवाई करता है।

 यह भी संभव है कि इस परिवर्तन का श्रेय वर्तमान सरकार और उसके करिश्माई नेतृत्व को दिया जाए। निश्चित ही यह एक करिश्मा ही होगा यदि देश की सर्वोच्च अदालत अपने विवेक का विलय सरकार के हितों और इच्छाओं के साथ कर देगी। हो सकता है कि  कुछ सोशल मीडिया पोस्टों में इस बात की ओर संकेत किया जाए कि कमिटेड जुडिशरी का प्रारंभ तो श्रीमती इंदिरा गाँधी के जमाने में हुआ था और बेचारे प्रधानमंत्री एवं उनकी सरकार इस परंपरा को बस आगे बढ़ा रहे हैं।

कुछ बहुत बुनियादी सवाल हमेशा की तरह अनुत्तरित रह जाएंगे। क्या न्यायपालिका को अधिक स्वायत्त और अधिक उत्तरदायी बनाने के लिए इसमें आमूलचूल परिवर्तन आवश्यक है? क्या न्यायपालिका को अपने अंदर व्याप्त भ्रष्टाचार को स्वीकारने और उस पर अंकुश लगाने के लिए बाध्य किया जा सकता है? क्या बहुसंख्यक वर्ग की इच्छा न्याय है? क्या हम ऐसी न्यायपालिका की ओर बढ़ रहे हैं जो प्लेइंग टु द गैलरी पर भरोसा करती है? क्या विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की प्राथमिकताओं का एकाकार हो जाना लोकतंत्र के लिए घातक नहीं है? यदि लोकतंत्र के तीनों आधार स्तंभ अपना मूल चरित्र खोकर किसी खास उद्देश्य, किसी विशेष विचारधारा या किसी ताकतवर शक्ति केंद्र के प्रति समर्पित हो जाएं तो क्या इसे लोकतांत्रिक आवरण में अधिनायकवाद के आगमन की आहट माना जा सकता है?

 जिस मतभिन्नता को प्रजातंत्र के तीनों आधार स्तंभों की ऐसी टकराहट के रूप में प्रस्तुत किया जाता  है जो विकास की गति  को अवरुद्ध करती है वह दरअसल विकास प्रक्रिया को पारदर्शी और  जनोन्मुख बनाने का जरिया है। क्या हमें  लोकतंत्र के इन आधार स्तंभों को सशक्त और स्वायत्त नहीं बनाना चाहिए?

 प्रशांत भूषण में अनेक लोग लोकनायक जयप्रकाश नारायण की छवि देख रहे हैं। इनके मन में यह आशा है कि गांधी के देश के बाशिंदे अभिव्यक्ति की आजादी और न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर मुखर होंगे और सरकार के पास ऐसे सत्याग्रहियों को रखने के लिए जेलें कम पड़ जाएंगी। किंतु यथार्थ इससे एकदम विपरीत है। प्रशांत भूषण को समर्थन देने वाले चेहरे वही हैं जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकारों की रक्षा, लोकतंत्र के संविधान सम्मत संचालन और आदर्श न्याय व्यवस्था की स्थापना के लिए दशकों से संघर्ष करते रहे हैं।

राजनीतिक दलों का समर्थन इन विषयों पर विशेषज्ञता रखने वाले अपने प्रवक्ताओं के रस्मी बयानों तक सीमित है। राजनीति में अपने पिछले अनुभव के आधार पर  प्रशांत भूषण यह समझ ही गए होंगे कि उनके उद्देश्य की पवित्रता की रक्षा के लिए न्यायिक संघर्ष ही श्रेयस्कर है। नए भारत में गांधी और जेपी  के करिश्मे को दुहराना आसान नहीं है। हाँ, यदि तथाकथित मुख्यधारा का मीडिया अपनी बाजीगरी दिखाए तो प्रशांत भूषण को दूसरा अन्ना हजारे अवश्य बना सकता है। निश्चित ही प्रशांत भूषण अन्ना के सम्मोहन और मायाजाल से बाहर आ चुके होंगे और कम से कम उन जैसा बनना तो बिल्कुल नहीं चाहेंगे। वैसे भी मीडिया अभी दूसरे कार्य में व्यस्त है। सुप्रीम कोर्ट से राहत प्राप्त कर चुके अर्णव गोस्वामी और अमीश देवगन जैसे नए भारत के नए राष्ट्रवाद की हिमायत करने वाले पत्रकार अभी सुशांत सिंह राजपूत को न्याय दिलाने में व्यस्त हैं।

 बढ़ती बेरोजगारी, प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा, कोरोना से लड़ने में सरकार की नाकामी, चरम कोरोना संक्रमण के काल में परीक्षाओं के आयोजन की सुप्रीम कोर्ट सम्मत सरकारी जिद जैसे ढेरों मुद्दों की बात करने वाले पत्रकार, बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट इन एंकरों की भांति भाग्यशाली नहीं रहे हैं और विनोद दुआ एवं अरुंधति राय की भांति सुप्रीम कोर्ट की बेरुखी के शिकार हुए हैं। आम आदमी इतने प्रगाढ़ सम्मोहन में है कि ताली और थाली बजाने तथा दीपक जलाने को ही राष्ट्रीय कर्त्तव्य समझ बैठा है- ऐसे में परिवर्तन की आशा कम ही है।

हाल की परिस्थितियां पता नहीं क्यों अमेरिका के फ्रंटियर टाउन्स पर बनी फिल्मों की याद दिलाती हैं। इन फिल्मों की कहानी चार पात्रों मेयर, शेरिफ, जज और जर्नलिस्ट के इर्द गिर्द बुनी गई होती थी। कुछ फिल्मों में इनमें से तीन आपस में गठजोड़ कर अपनी मनमानी चलाते थे और जनता डर के साये में जीती थी। चौथा जो ईमानदार होता था और फ़िल्म का नायक भी- जनता के सहयोग और अपनी वीरता तथा सूझबूझ से इन्हें परास्त कर न्याय का राज्य कायम करता था। ऐसी बहुत कम, बल्कि इक्का दुक्का फिल्में होंगी जिनमें यह चारों मुख्य पात्र नकारात्मक विशेषताओं वाले थे और नायक आम जनता का कोई बहादुर नौजवान था। वह सुखांत फिल्में होती थीं इसलिए उनमें नायकों की जीत होती थी। आज की हकीकत तो अंतहीन ट्रेजेडी की है।

(छत्तीसगढ़ निवासी डॉ. राजू पाण्डेय स्वतंत्र लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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