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चेन्नई यौन उत्पीड़न मामला बाल शोषण के कई अन्य पहलू से भी पर्दा उठाता है!

हमारा सामाजिक तंत्र और कानूनी संस्थाएं बच्चों को निराश करती हैं। उन्हें शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाने का, खुला संवाद करने का मौका नहीं देती। ऐसा माहौल सदमा पीड़ित को और कमज़ोर कर देता है और एक बच्चे के लिए आगे आकर यह कहना बहुत मुश्किल हो जाता है कि उसका शोषण किया गया है।
चेन्नई यौन उत्पीड़न मामला बाल शोषण के कई अन्य पहलू से भी पर्दा उठाता है!
फ़ोटो साभार: सोशल मीडिया

साल 2011, मदुरै के एक सरकारी स्कूल के हेडमास्टर पर 96 बच्चों के यौन उत्पीड़न का आरोप लगा। मामले को पॉक्सो एक्ट के तहत दर्ज किया गया लेकिन नतीजा आने में क़रीब सात साल का समय लग गया। अपराधी हेड-मास्टर को 55 साल की जेल हुई। अब, साल 2021 यानी ठीक एक दशक बाद भी तमिलनाडु में कुछ नहीं बदला। चेन्नई के कई नामचीन और टॉप स्कूलों में पढ़ने वाले मौजूदा और पूर्व छात्रों ने सोशल मीडिया के ज़रिये अपने यौन शोषण के दर्दनाक अनुभवों को साझा किया है। पद्म शेषाद्रि बाल भवन (पीएसबीबी) स्कूल से शुरू हुआ ये मामला इन दिनों पूरे देश में अध्यापकों के दुर्व्यवहार और बाल शोषण को लेकर चर्चा का केंद्र बना हुआ है।

आपको बता दें कि ये हाल सिर्फ किसी एक राज्य का नहीं है बल्कि पूरे देश का है। रिपोर्टस् के मुताबिक दुनियाभर में यौन शोषण के शिकार हुए बच्चों की सबसे बड़ी संख्या भारत में है। देश में हर तीन घंटे में एक बच्चे का यौन शोषण होता है, बावजूद इसके यहां इस बारे में बात करने में हिचक दिखती है। इस समस्या को गोपनीयता और इनकार की संस्कृति ने ढका जाता है, कोई जल्दी बोलना नहीं चाहता।

हर साल बाल यौन शोषण के तीन हजार मामले अदालत तक पहुंच ही नहीं पाते!

कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रंस फाउंडेशन द्वारा जारी एक अध्ययन रिपोर्ट बताती हैं कि हर साल बच्चों के यौन शोषण के तकरीबन तीन हजार मामले निष्पक्ष सुनवाई के लिए अदालत तक पहुंच ही नहीं पाते, क्योंकि पुलिस पर्याप्त सबूत और सुराग नहीं मिलने के कारण इन मामलों की जांच को अदालत में आरोपपत्र दायर करने से पहले ही बंद कर देती है। इसमें 99 फीसदी मामले बच्चियों के यौन शोषण के ही होते हैं। इस साल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर जारी इस अध्ययन के निष्कर्ष में कहा गया कि 2017 से 2019 के बीच उन मामलों की संख्या बढ़ी है जिन्हें पुलिस ने आरोप पत्र दायर किए बिना जांच के बाद बंद कर दिया।

फाउंडेशन के अध्ययन के अनुसार, हर दिन यौन अपराधों के शिकार चार बच्चों को न्याय से वंचित किया जाता है और ज़मीनी स्तर पर पॉक्सो एक्ट को बहुत ही ख़राब तरीक़े से लागू किया जाता है। इस अध्ययन में कहा गया है कि पूरे भारत में हर साल बच्चों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के मामलों में वृद्धि हो रही है।

इससे पहले साल 2007 में महिला और बाल विकास मंत्रालय के द्वारा कराए गए एक अध्ययन के मुताबिक़ जिन बच्चों का सर्वेक्षण किया गया उनमें से 53 प्रतिशत ने कहा कि वह किसी न किसी क़िस्म के यौन शोषण के शिकार हुए हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक बड़ी संख्या में शोषणकर्ता 'भरोसे के और देख-रेख करने वाले लोग' होते हैं जिनमें अभिभावक, रिश्तेदार और स्कूल शिक्षक शामिल हैं। हालांकि इस रिपोर्ट के सालों बाद भी बच्चों के जीवन में कुछ नहीं बदला। न हालात सुधरे न ही शिकायती मामलों के निपटान के लिए कोई खास व्यवस्था ही हो पाई।

बाल यौन शोषण के अधिकतर मामलों में पॉक्सो लगाया ही नहीं जाता!

साल 2012 में भारत में बच्चों को यौन हिंसा से बचाने वाला क़ानून (पॉक्सो, POCSO-The Protection of Children from Sexual Offences) बनाया गया ताकि बाल यौन शोषण के मामलों से निपटा जा सके लेकिन इसके तहत पहला मामला दर्ज होने में दो साल लग गए। साल 2014 में नए क़ानून के तहत 8904 मामले दर्ज किए गए लेकिन उसके अलावा इसी साल नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो में बच्चों के बलात्कार के 13,766 मामले; बच्ची पर उसका शीलभंग करने के इरादे से हमला करने के 11,335 मामले; यौन शोषण के 4,593 मामले; बच्ची को निर्वस्त्र करने के इरादे से हमला या शक्ति प्रयोग के 711 मामले; घूरने के 88 और पीछा करने के 1,091 मामले दर्ज किए गए। ये आंकड़े बताते हैं कि बाल यौन शोषण के अधिकतर मामलों में पॉक्सो लगाया ही नहीं गया।

इन सालों में संसद में कई बार इस मामले ने तूल भी पकड़ा बावजूद इसके तस्वीर कुछ खास नहीं बदली। सांसद राजीव चंद्रशेखर ने जनवरी 2014 में बाल यौन शोषण के बारे में बोलना तब शुरू किया जब एक तीन साल की बच्ची की मां ने उनसे संपर्क किया। बच्ची के साथ स्कूल में बलात्कार की घटना हुई थी। तब चंद्रशेखर ने इस समस्या को एक 'महामारी' बताते हुए दिल्ली में एक 'ओपन हाउस' का आयोजन किया जिसका उद्देश्य था "ताकि हम बाल यौन शोषण के बारे में बात करना शुरू करें और अपने बच्चों को बचाएं।

बच्चों की सुरक्षा प्राथमिकता कब बनेगी?

इस मुद्दे पर ख़ामोशी तोड़ने के लिए चंद्रशेखर ने चेंज.ओआरजी पर सितंबर में एक याचिका शुरू की जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से "बच्चों की सुरक्षा को प्राथमिकता बनाने और बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए रूपरेखा बनाने के प्रति प्रतिबद्धता" का आग्रह किया गया था। वह महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी से भी मिले और उन्हें वह याचिका सौंपी जिस पर 1,82,000 से अधिक लोगों ने हस्ताक्षर किए हैं। हालांकि इतने प्रयासों के बावजूद बाल यौन शोषण पर बात करने की चंद्रशेखर की कोशिशें परवान नहीं चढ़ी और ट्विटर पर महीनों तक उन पर 'भारत को बदनाम करने के पश्चिमी षड्यंत्र का हिस्सा' होने का आरोप लगाया जाता रहा।

सांसद आनंद शर्मा की अध्यक्षता वाली संसदीय स्थायी समिति ने न्याय व्यवस्था को और प्रबल करने के लिए एक रिपोर्ट में यह उल्लेख किया था कि भारत को मौजूदा 325 अदालतों के अलावा 389 विशेष अदालतों की ज़रूरत है, जो वर्तमान में 28 राज्यों में कार्यरत 325 अदालतों में लंबित मामलों को निपटाने में मदद कर सकें और जल्द न्याय का रास्ता सुनिश्चत हो सके।

बच्चे शोषण की बात करने में हिचकते हैं तो अभिभावक शिकायत नहीं करना चाहते

चेन्नई के एक मामले ने बाल शोषण के कई अन्य पहलू से भी पर्दा उठा दिया है। जैसे स्कूलों में बच्चों से जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव, मार-पीट, गलत जगह छूना, छात्राओं के साथ बुरा बर्ताव, बॉडी शेमिंग से लेकर फब्तियाँ कसना और चुप रहने के लिए धमकियां तक देना शामिल है। वैसे इन मामलों में स्कूल प्रशासन का रवैया भी बेहद नाकारात्मक ही देखने को मिला है।

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रिकवरिंग एंड हीलिंग फ़्रॉम इंसेस्ट (राही) फ़ाउंडेशन से जुड़ी अभिलाषा सिंह बताती हैं कि पहले तो बच्चे यौन शोषण की बात करने में हिचकते हैं, फिर अभिभावक इसकी शिकायत नहीं करना चाहते। इसलिए अक्सर अध्यापकों की या परिवार के सदस्यों की यौन हिंसा की खबरें मुश्किल से ही रिपोर्ट हो पाती हैं।

सामाजिक तंत्र और कानूनी संस्थाएं बच्चों को निराश करती हैं!

अभिलाषा आगे न्यूज़क्लिक से कहती हैं, “पॉक्सो का क़ानून अच्छा है लेकिन इसके अमल और सज़ा दिलाने की दर में भारी अंतर है। ये लगभग 2.4 प्रतिशत मामलों में ही अमल हो पाता है और कई बार सबूतों के आभाव या संदेह के लाभ में आरोपी बच भी निकलते हैं। हाल ही में बॉम्बे हाईकोर्ट की जस्टिस गनेदीवाला का उदाहरण हमारे सामने है। ऐसे फैसले पूरी तरह सदमा पीड़ित को कमज़ोर कर देते हैं और एक बच्चे के लिए आगे आकर यह कहना बहुत मुश्किल हो जाता है कि उसका शोषण किया गया है।”

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बाल अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था क्राई से जुड़े अशोक कुमार मानते हैं कि कई मामलों में पुलिस का रवैया भी संवेदनहीन होता है। हमारी कानूनी संस्थाएं बच्चों के लिए क़तई दोस्ताना नहीं हैं। बच्चों से बात करने के लिए विशेष वकील नहीं हैं और अदालतों पर काम का बोझ बढ़ाता ही जा रहा है। यह कुल मिलाकर ऐसा माहौल बना देते हैं जो बच्चे के लिए  निराशाजनक और डराने वाला होता है।

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