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पुरोला मामला: क्या अब संविधान की बजाए सांप्रदायिक महापंचायत से फ़ैसले होंगे? 

प्रेस कॉन्फ्रेंस के माध्यम से प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से इस मामले में हस्तक्षेप करने की गुज़ारिश की गई है। साथ ही उन तमाम पार्टियों और संगठनों से भी सवाल पूछे गए जो मानवाधिकार की बात करते हैं। 
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शांत रहने वाले उत्तराखंड के पहाड़ों में एक दहशत भरी हलचल है लेकिन देश की राजधानी दिल्ली में एक ख़ामोशी है। आख़िर क्यों? 
कुछ दिन पहले राहुल गांधी ने अमेरिका में भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हमले का बात कही, जिस पर बीजेपी ने पलटवार किया और राहुल गांधी पर विदेश में देश का अपमान करने का आरोप लगाया, सियासी वार-पलटवार का ये सिलसिला इससे पहले भी चल रहा था और आगे भी चलता रहेगा। लेकिन उत्तराखंड के उत्तरकाशी के पुरोला के कुछ वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं, जिन्हें विदेशी मीडिया भी दिखा रहा है। पूरी दुनिया देख रही है कि उत्तरकाशी के पुरोला में मुसलमानों की प्रॉपर्टी के साथ क्या हो रहा है।  

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वायरल हो रहे इन वीडियो में ख़ास बात है कि पुलिस की मौजूदगी में धार्मिक नारे लगाते हुए भीड़ मुसलमानों की दुकानों पर धावा बोल रही है, लेकिन पुलिस बेबस नज़र आती है, रैली निकाली जा रही है, नफ़रत से भरे नारे लगाए जा रहे हैं,लेकिन दिल्ली से लेकर उत्तराखंड तक ख़ामोशी पसरी है। 

क्या है मामला? 

26 मई  को उत्तरकाशी के पुरोला से एक नाबालिग लड़की को बहला कर ले जाने का मामला सामने आया था। बताया जा रहा है कि मामले में एक हिन्दू और एक मुस्लिम लड़के को पकड़ा गया। पुलिस ने लड़की को भगाकर ले जाने का मामला दर्ज कर लिया। इसके बाद इस मामले को 'लव जिहाद' का एंगल देते हुए मुसलमानों को 15 जून तक मकान-दुकान खाली कर पुरोला छोड़ने का ऐलान कर दिया गया। 

28 मई को हिन्दू रक्षा अभियान नाम के एक संगठन के बैनर तले विरोध-प्रदर्शन कर 'मुसलमान मुक्त उत्तराखंड' का नारा दिया गया।
 
इसे भी पढ़ें : उत्तराखंड: 'मुसलमान मुक्त पुरोला' का खुलेआम आह्वान, लेकिन पुलिस और सरकार ख़ामोश
 
इस मामले पर हमने स्थानीय पत्रकार त्रिलोचन भट्ट से बात की तो उन्होंने बताया कि क़रीब पांच हज़ार की आबादी वाले पुरोला में डेढ़-दो सौ के क़रीब मुसलमान हैं। 28 मई को हिंदूवादी संगठनों की तरफ से दी गई धमकी के बाद रातों-रात सभी मुस्लिम परिवारों ने पुरोला छोड़ दिया, इस वक़्त वहां सिर्फ 6 परिवार रहे हैं और उन्होंने भी ख़ुद को घरों में क़ैद कर लिया है। त्रिलोचन भट्ट बताते हैं कि इस वक़्त मुसलमानों के बीच इतना डर का माहौल है कि वे किसी से भी बात करने को तैयार नहीं हैं। 
 
काले निशान नाज़ी जर्मनी के पीले क्रॉस याद दिलाते हैं
 
इस बीच सोशल मीडिया पर वे तस्वीरें भी वायरल हुई जिसमें मुसलमानों की दुकानों पर काले रंग के पेंट से क्रॉस की निशानदेही बना दी गई। ये तस्वीरें नाज़ी जर्मनी की याद दिलाती हैं, 1944 में हंगरी के बुडापेस्ट में दो हज़ार यहूदी परिवारों को जहां रखा गया था उनकी निशानदेही के लिए घरों के बाहर पीले क्रॉस लगा दिए गए थे। 

क्या ये तस्वीरें हलचल पैदा नहीं करतीं? क्या दिल्ली को इस बात का एहसास नहीं है कि आख़िर उन मुसलमान परिवारों पर क्या गुज़र रही होगी जिनकी दुकानों पर इस तरह की निशानदेही बनाई जा रही है? 
 
दिल्ली में मुस्लिम संगठन ने प्रधानमंत्री को ज्ञापन सौंपा
 
इस दहशतज़दा ख़ामोशी में दिल्ली में हमें कुछ सुगबुगाहट दिखाई दी, 'ऑल इंडिया यूनाइटेड मुस्लिम मोर्चा' की तरफ से मंगलवार को प्रधानमंत्री कार्यालय में इस मुद्दे पर एक ज्ञापन सौंपा गया। और प्रेस कॉन्फ्रेंस की गई । 

जैसे ही हम दिल्ली के लक्ष्मी नगर में इस संगठन के ऑफिस पहुंचे देखा पुलिस की एक गाड़ी (PCR) और कुछ पुलिस वाले खड़े थे, इससे पहले की प्रेस कॉन्फ्रेंस शुरू होती वहां मौजूद एक पुलिस वाले से हमने उनकी मौजूदगी का सबब जानना चाहा, लेकिन बिना बुलाए पहुंची पुलिस की मौजूदगी ज़ाहिर थी।  

बहरहाल,  इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में हफीज़ गुलाम सरवर ने कहा कि ''पिछले पांच-छह दिन से उत्तराखंड के उत्तरकाशी से जो तस्वीर आ रही हैं, वे तस्वीरें देश को विचलित कर रही हैं एक ऐसी तस्वीर भी आ रही है कि पुलिस की मौजूदगी में, अल्पसंख्यकों की दुकानों को उजाड़ा जा रहा है, उनको बाज़ार से खदेड़ा जा रहा है, बकायदा पोस्टर लगाए जा रहे हैं, कि अमुक तारीख़ तक आप इस क्षेत्र को खाली कर दें, अन्यथा अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहें'' । 
इस मामले में सरकार के साथ ही विपक्ष की ख़ामोशी पर ही भी उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा कि ''विपक्ष के नेताओं ने भी चुप्पी साध रखी है, ऐसे में अल्पसंख्यक किसके दरवाजे पर जाएगा, अगर सब तरफ सन्नाटा है, न्यायपालिका से विनती करते हैं मुख्य न्यायाधीश महोदय को इस मुद्दे पर स्वत:  संज्ञान लेते हुए उत्तराखंड सरकार को बर्खास्त कर देना चाहिए''। 

प्रेस कॉन्फ्रेंस के माध्यम से प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से इस मामले में हस्तक्षेप करने की गुज़ारिश की गई साथ ही उन तमाम पार्टियों और संगठनों से भी सवाल पूछे गए जो मानवाधिकार की बात करते हैं। 

ज्ञापन सौंपने के अलावा इस संगठन ने एक अहम मांग करते हुए कहा कि ''सुनने में आ रहा है कि हिंदू संगठन और मुस्लिम संगठन इस मुद्दे पर महापंचायत करने वाले हैं, सवाल ये है कि जिस देश में क़ानून है न्यायपालिका है, थाना है सरकार है तो क्या फैसले अब पंचायत से होंगे? प्रधानमंत्री से विनती है कि इस प्रस्तावित महापंचायत को रोका जाए, किसी भी समुदाय को महापंचायत के नाम पर माहौल ख़राब करने की अनुमति न दी जाए और महापंचायत को कतई ये इजाजत न दी जाए कि वे कोई फैसला सुनाएं, फैसला सुनाने के लिए हमारे पास छोटे से ज़िला न्यायालय से लेकर उच्चतम न्यायालय तक है, उसके बाद अगर कोई पंचायत करके फैसला सुनाएगा तो ये दुर्भाग्यपूर्ण होगा इसलिए प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से विनती है कि उस प्रस्तावित महापंचायत को कानूनन रोका जाए''। ये बात बिल्कुल सही है जिस देश में संविधान है वहां किसी संवेदनशील मुद्दे पर महापंचायत कैसे हो रही हैं, और उन महापंचायतों के फैसलों को कैसे तुगलकी फरमान के तौर पर जारी किया जा सकता है?  आपको बता दें कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही आदेश दे चुका है कि हेट स्पीच के मामलों में पुलिस स्वत: संज्ञान ले, लेकिन पुलिस वहां क्या कर रही है ये पूरी दुनिया देख रही है। 
 
15 जून की प्रस्तावित महापंचायत पर नज़र टिकी 
 
इस डर के माहौल में अब नज़र टिकी है 15 जून को होने वाली महापंचायत पर, देखना होगा कि पुलिस-प्रशासन और सरकार मामले को शांत करने के लिए महापंचायत को रोकती है ( जिसकी उम्मीद कम ही लगती है ) या नहीं। 

हमने इस दहशत और ध्रुवीकरण के माहौल के बारे में त्रिलोचन भट्ट से पूछा कि क्या ये 2024 की तैयारी है उन्होंने कहा ''ये बिल्कुल उसी की तैयारी है''
तो क्या जैसे-जैसे 2024 क़रीब आ रहा है, बेरोज़गारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, जैसे मुद्दों को ग़ायब करने के लिए ध्रुवीकरण की राजनीति की जा रही है? जवाब हम सबके पास है। 
 
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हम सुनते आए हैं 'आइडिया ऑफ इंडिया' जिसमें देश के सामाजिक ताने-बाने को हिन्दू- और मुसलमान नाम की डोर से सालों की मेहनत में बुना गया था लेकिन लगता है कि 2024 में मुद्दों को ग़ायब करने की साजिश में इस ताने-बाने को पूरी तरह से तबाह कर दिया जाएगा।  

देश में दलितों, मुसलमानों, ईसाइयों समेत अन्य अल्पसंख्यकों के साथ जो व्यवहार किया जा रहा है वे देश के लिए चिंता का सबब होना चाहिए था लेकिन जिस तरह से पूरे देश में उत्तराखंड को लेकर ख़ामोशी है वे ख़तरनाक है क्योंकि अगर एक शांत प्रदेश में एक गलतफहमी को इतना बड़ा मुद्दा बनाकर मुसलमानों का सामाजिक बहिष्कार कर 2024 में वोट बटोरने की कोशिश सफल रही तो फिर कोई अपना रिपोर्ट कार्ड लेकर जनता के बीच जाने की ज़हमत नहीं उठाएगा। 

लेकिन एक सवाल ये भी बनता है कि अगर देश इसी तरह से चलेगा महापंचायत लगाकर फैसले लिए जाएंगे तो संविधान से चलने वाले देश में मुसलमान किस के पास जाएगा? और अगर इसी स्थिति की विदेश में चर्चा की जाए तो क्यों देश को बदनाम करने का आरोप लगता है। 

 

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