85 प्रतिशत घरेलू कामगारों को लॉकडाउन में नहीं मिला वेतन - सर्वे
कोविड-19 महामारी को थामने के लिए की गई देशव्यापी तालाबंदी की घोषणा ने खास तौर शहरों में अनौपचारिक श्रमिकों की दयनीय हालत का पर्दाफाश कर दिया है। घरेलू कामगारों की हालत – जिनमें अधिकांश महिलाएँ हैं- बहुत खराब और बेहाल हैं।
डोमेस्टिक वर्कर्स सेक्टर स्किल काउंसिल (DWSSC) के एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि लगभग 85 प्रतिशत घरेलू कामगारों को लॉकडाउन अवधि के दौरान का वेतन या मजदूरी नहीं मिली है। कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय के तहत काम कर रहे एक गैर-लाभकारी संगठन डीडब्ल्यूएसएससी ने आठ-राज्यों के रेंडम सर्वेक्षण में पाया कि 23.5 प्रतिशत घरेलू श्रमिक अपने मूल स्थान यानि अपने गाँव वापस चले गए हैं।
जबकि, 38 प्रतिशत घरेलू कामगारों ने बताया कि उन्हें भोजन का इंतजाम करने में गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। लॉकडाउन की अवधि में ज़िंदा रहने के लिए लगभग 30 प्रतिशत लोगों के पास फूटी कौड़ी नहीं है। हालांकि, 98.5 प्रतिशत घरेलू कामगार कोविड-19 से बचने के लिए बरती जाने वाली सावधानियों से परिचित हैं।
यह सर्वेक्षण आठ राज्यों में अप्रैल महीने में किया गया था- जिनमें दिल्ली, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड और तमिलनाडु शामिल है। लेकिन, घरेलू कामगार अभी भी संकट में हैं क्योंकि वे काम पर वापस नहीं जा पा रहे हैं और जीवन यापन के लिए जरूरी मजदूरी नहीं कमा पा रहे हैं।
पूरे भारत में, केवल 14 राज्यों ने ही घरेलू श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी को अधिसूचित किया है। “इन राज्यों में, घरेलू मजदूर या कामगार अपनी समस्याओं के निदान के लिए शिकायत दर्ज कर सकते हैं लेकिन राष्ट्रीय राजधानी सहित बाकी राज्यों में, उनके पास ऐसा कोई अधिकार या सहारा नहीं है। इसलिए, इनके लिए क़ानूनों में एकरूपता की आवश्यकता है, उक्त बात, ”दिल्ली घरेलू कामगार संगठन के अध्यक्ष रामेंद्र कुमार ने कही।
रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि कई संपन्न तबकों के भीतर इन घरेलू श्रमिकों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है। अमीर लोग, घरेलू कामगारों को ऐसे मानते हैं जैसे कि वे वायरस को अपने साथ लेकर चलते हैं।
स्त्री जागृति समिति की संस्थापक गीता मेनन के अनुसार, जिन्होंने घरेलू कामगार अधिकार यूनियन कर्नाटक बनाने में भी मदद की थी, कई मालिक समझते हैं कि घरेलू कामगार वायरस के वाहक हैं।
हाल ही में, कैंट वाटर प्यूरीफायर ब्रांड ने इंस्टाग्राम पर एक क्लासिस्ट विज्ञापन पोस्ट किया जिसमें कहा गया है कि, “क्या आप अपनी नौकरानी के हाथों को आटा गूंधने की अनुमति देंगे? उसके हाथ संक्रमित हो सकते हैं।” कई मालिक ऐसा ही सोचते हैं और वह विज्ञापन उनकी आवाज़ बनाकर निकाला गया विज्ञापन है, गीता ने कहा।
“80 प्रतिशत से अधिक घरेलू कामगारों को अगले दो महीनों (जून और जुलाई) तक काम पर न आने के लिए कहा गया है क्योंकि उनके मालिक डरते कि वे उनके घर में वायरस ले आएंगे। गीता के अनुसार, जब घरेलू कामगार काम पर आते है तो मालिक लोग खुद को एक कमरे के अंदर बंद कर लेते हैं, जो अपने आप में असंवेदनशील और ज़लालत भरा कदम है,”।
गीता ने कहा कि अप्रैल के महीने में बेंगलुरु में लगभग 50 प्रतिशत घरेलू कामगारों को उनका वेतन नहीं मिला है, जबकि कई को मालिकों ने हमेशा के लिए काम से निकाल दिया है।
जिस तरह से घरेलू कामगारों के साथ मालिक लोग व्यवहार करते हैं, उससे उनके प्रति ज़लालत और घृणा स्पष्ट तौर पर नज़र आती है। एक 30 वर्षीय घरेलू कामगार, प्रेमा बताती हैं कि उसके मालिक ने उसके साथ कैसा व्यवहार किया। “मेरे मालिक ने कहा कि जिस जगह मैं रहती हूं वह साफ-सुथरी जगह नहीं है और इसलिए उन्हे संक्रमित होने का डर हैं। अब, मैंने एक छड़े व्यक्ति के घर पर नौकरी ढूंढ ली है। वे मुझे प्रति माह 1,500 रुपये देने जा रहे हैं। इससे पहले, मैं दोगुना कमाती थी और मेरी शुरुआती सैलरी 3,500 रुपये प्रति घर थी। मुझे नहीं पता कि मैं और क्या कर सकती हूं।
अस्पृश्यता और छुआ-छूत के इस नए आयाम पर टिप्पणी करते हुए, एक प्रसिद्ध पत्रकार, फ़े डिसूज़ा ने कहा: "मुझे उम्मीद है कि उन्हें इस बात का एहसास होगा कि यह वायरस विदेश से वापस आने वाली ‘मैडम और साहब’ के माध्यम से आया है, जिन्होंने नौकरानियों को यह वायरस दिया है... न कि यह नौकरानियों की वजह से उनमें गया है!"
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