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बृजभूषण सिंह मामला: महिला आंदोलन के लिए चेतावनी है

मेडलिस्ट पहलवानों के इस पूरे मामले में सरकार-पुलिस ने जिस प्रक्रिया को अपनाया है, वह महिला आंदोलन से हासिल अधिकारों को उलटने जैसा है।
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फ़ोटो : PTI

महिला पहलवानों के यौन उत्पीड़न मामले में 15 जून को पॉक्सो विहीन जो चार्जशीट दाखिल हुई, वह आश्चर्यजनक या अप्रत्याशित नहीं है। मामले की शुरुआत  से ही भाजपा सरकार अपने सांसद बृजभूषण सिंह को बचाने का जो खुला प्रयास कर रही है, उसमें यही होना था।

हालांकि अभी यह नहीं कहा जा सकता कि बृजभूषण ‘पॉक्सो’ के आरोप से बरी हो गया। अभी दिल्ली पुलिस ने पॉक्सो हटाने को लेकर कोर्ट में आवेदन किया है, जिसकी अगली सुनवाई 4 जुलाई को होनी है। दरअसल इस समय कोर्ट के सामने नाबालिग लड़की के 164 के दो बयान मौजूद हैं, एक बृजभूषण पर आरोप लगाने वाला और दूसरा उसे वापस लेने वाला। इन दो बयानों को साथ लेते हुए पॉक्सो का मुकदमा आगे चलेगा ,या मात्र दूसरे बयान को प्रमुखता से लेकर इसे रद्द कर दिया जायेगा, इसका फैसला अब कोर्ट को लेना है।

सरकार की जो मंशा थी, उसे दिल्ली पुलिस ने पूरा कर दिया है, अब देखना ये है कि कोर्ट में बैठा जज इसे कैसे देखता है। मानवाधिकार कार्यकर्ता और प्रख्यात वकील वृंदा ग्रोवर कहती हैं कि 164 का दूसरा बयान पॉक्सो हटाने का वैध आधार नहीं है, इससे बस मुकदमा कमजोर होता है। महिला आंदोलन से जुड़े समूह और एडवोकेट 4 जुलाई को पुलिस के आवेदन के खिलाफ बहस के लिए सिर जोड़े बैठी हैं, लेकिन हम जानते हैं कि सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि जज सरकारी दबाव को अपने ऊपर कितना लेता है।

सच तो ये है कि भाजपा सरकार की पुलिस आरोपी को बचाने के लिए जितना खुले रूप में सामने आयी है, उसमें बालिग महिला पहलवानों के आरोपों के आधार पर उस पर आईपीसी की धारा 354, 354ए, 354डी और 506 का चार्ज बना देना भी एक जीत ही है। यह उनके अनवरत आंदोलन, इसके देशव्यापी असर और अन्तर्राष्ट्रीय दबाव का नतीजा है, जिसके कारण सरकार को थोड़ा झुकना पड़ा है, वरना इतना भी नहीं हो पाता और बृजभूषण अब भी कुश्ती संघ में लड़कियों से खिलवाड़ कर रहा होता। लड़कियों के आंदोलन ने बृजभूषण और उसकी पार्टी वाली सरकार की रातों की नींद तो उड़ा ही दी थी। इसी कारण मात्र पॉक्सो हटने मात्र से ही इन सभी ने चैन की सांस ली है। बृजभूषण के पक्ष में खड़े साधु-सन्तों को भी दिक्कत केवल पॉक्सो से ही थी।

खबर यह भी है कि प्रधानमंत्री 21 जून से शुरू होने वाली अपनी अमेरिका यात्रा को लेकर डरे हुए थे, कि कहीं इस मामले के कारण वहां उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय बेइज्जती न झेलनी पड़े। इसलिए इस मामले को उनके जाने से पहले बीच का रास्ता निकालकर सुलटाना जरूरी था। इस बीच के रास्ते के कारण ही अब बृजभूषण पर मुकदमा दर्ज भी हो गया और उसे जेल भी नहीं जाना पड़ेगा। प्रधानमंत्री ने अपनी छवि ठीक करने के लिए भले ही यह बीच का रास्ता निकाल लिया है, लेकिन बृजभूषण पर से जिस तरीके से पॉक्सो का चार्ज हटाया गया, वह किसी लोकतंत्र की हत्या से कम नहीं है।

पूरे देश ने देखा कि पॉक्सो में केस दर्ज होने के बाद भी बृजभूषण को पीड़ितों और गवाहों को धमकाने के लिए, लालच देने के लिए खुला छोड़ दिया गया, पूरे देश ने पीड़ित पहलवानों और मेडल के अपमान वाला बयान सुना, उसे अप्रत्यक्ष धमकी देते सुना। पूरे देश ने सुना कि नाबालिग लड़की के पिता ने बयान बदलने के बाद कहा कि ‘उन्हें खतरा है, इसलिए वे इस मामले को यहीं खत्म करना चाहते हैं।’ लेकिन सेंगोल थामे प्रधानमंत्री, नये संसद में विराजमान गृहमंत्री, उनके अधीन काम करने वाली पुलिस और न्यायपलिका तक सब इसे होता देखते रहे, किसी ने आगे बढ़कर नाबालिग लड़की और उसके पिता को यह हौसला नहीं दिया, कि वे उनके साथ खड़े हैं। उनके साथ कोई खड़ा था, तो आंदोलनकारियों का एक समूह, जिसकी ताकत पर वे भरोसा नहीं कर सके।

दुनिया ने देखा कि भारत में लोकतंत्र की सभी संस्थाओं पर यौन उत्पीड़न का एक आरोपी भारी पड़ गया। लड़कियों के मेडल को 15 रुपये का बताने वाले बाहुबली भाजपा सांसद को ‘‘गोली मारो...’’ वाले खेल मंत्री ने बचा लिया, और गोली पूरे महिला समुदाय को जाकर लगी। इस घटना ने यह एक बार फिर से यह साबित किया है कि कानून अपना काम नहीं करता, बल्कि कानून का सेंगोल जिसके हाथ में होता है काम वो करता है।

यह पूरा मामला लोकतंत्र की चाह रखने वाले समूहों, खास तौर पर महिला आंदोलन के लिए एक चेतावनी है। महिला आन्दोलनों ने देश में महिलाओं के अनुकूल माहौल और कानून बनवाने के लिए काफी योगदान दिया है, लेकिन यह पूरा मामला पिछले सारे कामों को पलटता सा दिख रहा है।

मेडलिस्ट लड़कियों के यौन उत्पीड़न के इस मामले को दिल्ली पुलिस ने जिस दुश्मनाना तरीके से निपटाया है और निपटा रही है, वह अब तक बने सभी कानूनों को पलटने और उनकी धज्जियां उड़ाने वाले तरीके हैं-

यह कानून की अवहेलना है कि भारतीय कुश्ती संघ में ऐसे मामलों के निपटान के लिए आन्तरिक शिकायत सेल का गठन ही नहीं किया गया था। इसके लिए भी कुश्ती संघ के 12 साल से अध्यक्ष  बने रहे बृजभूषण को कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए था। बेशक यौन उत्पीड़न के आरोपी से हम इसकी उम्मीद नहीं कर सकते, लेकिन ऐसा न करने के लिए भी उसे दण्डित किया जाना एक कानूनी प्रक्रिया है, जिसकी अवहेलना की गयी। पहलवानों की शिकायत के बाद फेडरेशन ने मामले को दबाने के लिए बगैर कानून का ध्यान रखे मनमाने तरीके से इसका गठन किया, जिसकी रिपोर्ट को कभी सार्वजनिक नहीं किया।

भंवरी देवी बलात्कार केस के बाद कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को रोकने देश भर में चले महिला आंदोलन के बाद सुप्रीम कोर्ट से ‘विशाखा गाइडलाइन्स’ जारी किया गया, जिसमें हर संस्थान में ‘महिला शिकायत सेल’ को गठित किया जाना अनिवार्य बताया गया। इसके बाद ‘पोश’ यानी ‘प्रिवेशंन ऑफ वर्कप्लेस हरासमेंट एक्ट‘ ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को और बेहतर तरीके से परिभाषित करते हुए महिला अध्यक्ष की अगुवाई वाली ‘आईसीसी’ यानी ‘आन्तरिक शिकायत सेल’ के गठन को अनिवार्य बताया। पोश एक्ट के तहत आईसीसी का गठन न करने व इसके अन्य प्रावधानों को लागू न करने पर मुखिया व्यक्ति पर 50,000 रुपये के दण्ड का प्रावधान है। आखिर बृजभूषण और फेडरेशन के अन्य सम्बन्धित सदस्यों पर यह दण्ड क्यों नहीं लगाया जाना चाहिए? यह सवाल तो अब काफी पीछे छूट गया है।

यह सामाजिक शर्म की बात है कि इतने संगीन सामाजिक अपराध के खिलाफ पुलिस ने एफआईआर दर्ज करने से इंकार कर दिया, इसके लिए सुप्रीम कोर्ट से आदेश लाना पड़ा।

इस शर्मनाक कृत्य के बाद शर्मिंदा न होते हुए आरोपी को खुला छोड़कर अपराध के सारे तथ्यों-सुबूतों को मिटाने गवाहों को डराने-धमकाने का अवसर दिया गया। आरोपी सोशल मीडिया पर आ-आकर अपने बाहुबली व्यक्तित्व का प्रदर्शन कर पीड़ितों में डर भरता रहा। उसने पहले नाबालिग लड़की के ताऊ को दबाव में लिया या ‘खरीद’ लिया! लेकिन पिता फिर भी तन कर खड़ा रहा, तो 28 मई को जंतर-मंतर पर पहलवानों को घसीटकर उन पर एफआईआर दर्ज कर सरकार ने ही बृजभूषण का काम कर डाला। रिटायर्ड आईपीएस आफिसर ने पहलवानों को गोली मारने  की धमकी भी दी, लेकिन सरकार और उसके सभी महकमे पीड़ित पहलवानों के खिलाफ ही खड़े रहे। पॉक्सो के हटने या उसके कमजोर होने की इस पृष्ठभूमि को कतई नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। 

कानून की अवहेलना करते हुए इससे भी ज्यादा अपमान पीड़ित लड़कियों का तब किया गया, जब हत्या के मामले की तरह उन्हें ‘क्राइम सीन’ पर ले जाया गया और सीन ‘क्रियेट’ करने को कहा गया। दुखद यह है कि मीडिया इन सब की केवल रिपोर्टिंग करते रहे, इस पर किसी ने सवाल नहीं उठाया कि पीड़ित लड़की को फिर से उसी यातना से गुजरने वाली ये कार्यवाहियां क्यों की जा रही हैं, यह किस कानून के तहत किया जा रहा है। उनसे वीडियो प्रमाण मांगे गये, डकैती हत्या जैसे आरोपों की तरह लोगों के बयान लिये गये कि ‘क्या उन्होंने यह यौन हमला होते देखा?’ जबकि यह खुला हुआ तथ्य है कि ऐसे अपराध का चश्मदीद गवाह सिर्फ पीड़ित महिला ही होती है। ऐसी शिकायतों के प्रमाण मांगने के लिए समाज की वास्तविकता को भी अवश्य ध्यान में रखना चाहिए। इस देश में लड़कियों की मानसिक तैयारी जिस तरह से कराई जाती है उसमें कोई लड़की ऐसी घटनाओं को किसी से बता भी नहीं सकतीं। इस मानसिकता को तोड़कर अगर कोई महिला इसके खिलाफ शिकायत दर्ज करती है तो इसे ही उस अपराध का एक बड़ा प्रमाण माना जाना चाहिए। लेकिन यहां तो न्याय के पूरे सिद्धांत को ही पलटकर रख दिया गया, जिसमें पीड़ित को ही यह साबित करना है कि उसके साथ अन्याय हुआ है। राज्य उत्पीड़क के साथ खड़ा है। जबकि लोकतांत्रिक न्याय के सिद्धांत के अनुसार ऐसे अपराधों को सामाजिक अपराध मानकर राज्य को पीड़ित की ओर से इस मुकदमें की पैरवी करनी चाहिए। अपराधी की ओर खड़े होकर इस सरकार ने यह फिर से साबित किया है कि वह किसी लोकतांत्रिक मूल्यों की बजाय सामंती मनुवादी मूल्यों वाली सरकार है।

मेडलिस्ट पहलवानों के इस पूरे मामले में सरकार-पुलिस ने जिस प्रक्रिया को अपनाया है, वह महिला आंदोलन से हासिल अधिकारों को उलटने जैसा है। सुबूत जुटाने के नाम पर जिस तरीके से पीड़ितों को फिर से यौन हिंसा महसूस करने के लिए बाध्य किया गया, वह लोकतांत्रिक कहलाने वाले देश के लिए शर्मनाक है। लेकिन यह होता रहा और खुलेआम होता रहा। ऐसा नहीं है कि यौन हमले के आरोपी को बचाने का काम सरकार पहली बार कर रही है, इसकी तो लम्बी फेहरिस्त है, लेकिन इस मामले में सरकार और उसकी मशीनरी ने जिस तरीके से इस मामले को ‘निपटाया’ वह इस देश के लम्बे महिला आन्दोलनों के हासिल पर एक बड़ी चोट है। इसलिए यह पूरा मामला इस देश की महिला और महिला आन्दोलनों के लिए एक चेतावनी है। लोकतांत्रिक आन्दोलनों से हासिल अधिकारों पर बुलडोजर चलने की आवाज साफ-साफ सुनाई दे रही है। इस मामले ने यह भी अच्छी तरह से समझा दिया है कि कितनी भी ख्यातिनाम हो, अगर वो महिला है- तो है इस सामंती सत्ता के निशाने पर। इस महिला विरोधी माहौल को बदलने के लिए देश में एक सशक्त महिला आंदोलन की जरूरत है, यह आंदोलन सिर्फ औरतों को ही नहीं, देश को भी लोकतांत्रिक बनायेगा। 

(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता और “दस्तक नये समय की” पत्रिका की संपादक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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