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नए चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ से महिलाओं को इतनी उम्मीदें क्यों हैं?

संवैधानिक अधिकारों की रक्षा, एलजीबीटीक्यू समुदाय और महिला अधिकारों से लेकर अभिव्यक्ति की आज़ादी से जुड़े अपने फ़ैसलों तक में उनकी एक अलग छवि और लिबरल सोच नज़र आती है।
Justice DY Chandrachud

"देश की सेवा करना मेरी प्राथमिकता है। हम भारत के सभी नागरिकों की रक्षा करेंगे, चाहे वह टेक्नॉलजी में सुधार, रजिस्ट्री सुधार, या न्यायिक सुधारों के मामले में हो। नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना हमारी प्राथमिकता होगी।”

ये शब्द देश के नए चीफ जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ के हैं। देश के 50वें मुख्य न्यायधीश पद की शपथ लेने के बाद जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ सुप्रीम कोर्ट के परिसर में महात्मा गांधी की प्रतिमा पर श्रद्धांजलि अर्पित करने पहुंचे। इसके बाद मीडिया से बात करते हुए जो कुछ भी कहा वो उनके उदार व्यक्तित्व को जानने और साथ ही न्यायपालिका में आस्था को बरकार रखने के लिए काफी है। अबतक के उनके फैसले फिर चाहें वो किसी पहलू से सहमत हों या फिर असहमति जताएं, दोनों ही सूरतों में गहरी दिलचस्पी जगाते हैं।

बता दें कि पूर्व चीफ़ जस्टिस यूयू ललित का कार्यकाल आठ नवंबर को समाप्त हो गया। जिसके बाद बुधवार, नौ नवंबर को जस्टिस चंद्रचूड़ ने नए चीफ़ जस्टिस का पदभार संभाला है। उनका कार्यकाल दो सालों का होगा। वो नवंबर 2024 तक मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहेंगे। वैसे ये न्यायपालिका में पहला मौक़ा है, जब पहले मुख्य न्यायाधीश रह चुके शख्स के बेटे ने भी चीफ़ जस्टिस पद की शपथ ली। चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ के पिता जस्टिस वाईवाई चंद्रचूड़ 1978 में देश के 16वें न्यायाधीश बने थे और सात साल इस पद पर रहे थे। ये किसी मुख्य न्यायाधीश का सबसे लंबा कार्यकाल है।

जस्टिस चंद्रचूड़ पिछले सालों में कई अहम फ़ैसलों को लेकर सुर्खिय़ों में रहे हैं। कई बार उनका नाम सोशल मीडिया पर ट्रेंड भी कर चुका है। उनकी टिप्पणियाँ और व्याख्याएँ न सिर्फ़ क़ानूनी गलियारों में बल्कि अख़बारों और सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बनती रही हैं। संवैधानिक अधिकारों की रक्षा, एलजीबीटीक्यूआई समुदाय और महिला अधिकारों से लेकर अभिव्यक्ति की आज़ादी से जुड़े अपने फ़ैसलों तक में उनकी एक अलग छवि और लिबरल सोच नज़र आती है।

जस्टिस चंद्रचूड़ का सफ़र

चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने दिल्ली विश्वविद्यालय से अपनी एलएलबी की डिग्री पूरी की। इसके बाद वो स्कॉलरशिप पर हावर्ड पहुँचे। वहाँ उन्होंने मास्टर्स इन लॉ (एलएलएम) और डॉक्टरेट इन जूडिशियल साइंसेस की पढ़ाई पूरी की। उन्होंने वकील के तौर पर सुप्रीम कोर्ट, गुजरात, कलकत्ता, इलाहाबाद, मध्य प्रदेश और दिल्ली के हाईकोर्ट वकालत की। इसके बाद वो बॉम्बे हाईकोर्ट में जज नियुक्त किए गए। 1998 में उन्हें बॉम्बे हाईकोर्ट में सीनियर एडवोकेट नियुक्त किया गया। वो 1998 से 2000 एडिशनल सॉलिसिटर जनरल (एएसजी) भी रहे।

मार्च 2000 में वे बॉम्बे हाईकोर्ट में एडिशनल जज नियुक्त किए गए। अक्तूबर 2013 में उन्होने इलाहाबाद हाईकोर्ट के चीफ़ जस्टिस पद की शपथ ली थी और यहां से 2016 में वे सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। इसके साल भर बाद ही 2017 में जस्टिस वाईवाई चंद्रचूड़ सुप्रीम कोर्ट के उस संविधान पीठ का हिस्सा बनें, जिस बेंच ने ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाते हुए निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार बताया। नौ जजों वाली सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से ये फ़ैसला सुनाया था। 41 साल के अंतर पर आया ये फ़ैसला बदलते समय में संविधान की बदलती व्याख्या का सटीक उदाहरण था। और इस फ़ैसले को लेकर जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की बहुत चर्चा हुई, इसकी वजह थी कि उन्होंने अपने पिता वीईडी चंद्रचूड़ के फैसले को ही पलटा था।

जस्टिस चंद्रचूड़ ने देश के साथ विदेश मं भी नाम कमाया है। उन्होंने न सिर्फ विजिटिंग प्रोफेसर की भूमिका निभाई है बल्कि वह ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी, हार्वर्ड लॉ स्कूल, येल लॉ स्कूल और दक्षिण अफ्रीका के यूनिवर्सिटी ऑफ विटवाटर्सरैंड में भी लेक्चर दे चुके हैं। यूनाइटेड नेशंस द्वारा आयोजित कॉन्फ्रेंस में वक्ता रह चुके हैं। साथ ही यूनाइटेड नेशंस हाई कमिशन ऑन ह्यूमन राइट्स, इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन, यूनाइटेड नेशंस एनवायरनमेंट प्रोग्राम, वर्ल्ड बैंक, एशियन डेवलपमेंट बैंक में भी भाषण दे चुके हैं।

वैसे तो जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के कई फैसले और असहमतियां खबरों में रहीं, लेकिन हम यहां महिला अधिकारों से जुड़े उनके फैसलों पर एक नज़र डालते हैं, जिनसे आने वाले दिनों में बेहतर न्याय के उम्मीद की आस जगती है।

अविवाहित महिलाओं को गर्भपात का अधिकार

जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस सूर्य कांत और जस्टिस एएस बोपन्ना की तीन सदस्यीय पीठ ने इसी साल जुलाई के महीने में एक अहम फ़ैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 24 हफ़्ते की गर्भवती अविवाहित महिला को गर्भपात की इजाज़त दे दी थी। पीठ ने अपने फ़ैसले में कहा था कि एक अविवाहित महिला को सुरक्षित गर्भपात कराने की इजाज़त न देना उसकी निजी स्वायत्तता और आज़ादी का उल्लंघन होगा। कोर्ट ने ये भी कहा था कि महिला को इस क़ानून के तहत मिलने वाले लाभ से केवल इसलिए वंचित नहीं किया जा सकता, क्योंकि वो शादीशुदा नहीं है।

कोर्ट के मुताबिक बच्चे को जन्म देने या न देने की मर्ज़ी महिला को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले निजी स्वतंत्रता के अधिकार का भी अभिन्न हिस्सा है। न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि अगर महिला को गर्भपात की मंज़ूरी नहीं दी गई, तो ये क़ानून के उद्देश्य और भावना के विपरीत होगा। जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट के तहत रेप के दायरे में मैरिटल रेप भी आएगा।

शफ़ीन जहान बनाम अशोकन केएम मामला

केरल के चर्चित हादिया मामले को ही शफ़ीन जहान बनाम अशोकन केएम केस कहा जाता है। इस मामले में कथित लव जिहाद को दरकिनार करते हुए सर्वोच्च कोर्ट ने हादिया की शादी रद्द करने से संबंधित केरल उच्च न्यायालय के आदेश को खारिज कर दिया था। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने हादिया के धर्म और विवाह के लिए साथी की पसंद को सही ठहराया था।

हादिया ने इस्लाम धर्म अपना लिया था और याचिकाकर्ता शफीन जहां से शादी कर ली थी, इस पर उसके माता-पिता ने आरोप लगाया कि उसका ब्रेनवॉश किया गया था। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि विवाह या धर्म से जुड़े निर्णय लेने का एक वयस्क का अधिकार उसकी निजता के क्षेत्र में आता है।

सबरीमाला मंदिर मामला

सबरीमाला मंदिर मामले में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने माना था कि सबरीमाला मंदिर से 10-50 वर्ष की आयु के बीच की महिलाओं को बाहर करना संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन है। उन्होंने अपने फैसले में कहा था कि इस रोक ने महिलाओं की स्वायत्तता, स्वतंत्रता और गरिमा को नष्ट कर दिया है। विशिष्ट रूप से, उन्होंने माना कि इस प्रथा से अनुच्छेद 17 का भी उल्लंघन हुआ है, जो छुआछूत को प्रतिबंधित करता है, क्योंकि इसके तहत महिलाओं को अशुद्धता की अवधारणा से देखा जाता है।

समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटाना

देश की सर्वोच्च अदालत ने 6 सितंबर 2018 को जब अपने एक फैसले में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटाया, तो उस संवैधानिक पीठ का हिस्सा भी जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ थे। इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, जस्टिस एएम खानविल्कर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की बेंच ने फैसला सुनाया था।

फैसले के अनुसार आपसी सहमति से दो वयस्कों के बीच बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अब अपराध नहीं माना जाएगा। धारा 377 को पहली बार कोर्ट में 1994 में चुनौती दी गई थी। 24 साल और कई अपीलों के बाद सुप्रीम कोर्ट के पाँच न्यायाधीशों की खंडपीठ ने अंतिम फ़ैसला दिया था। नवतेज जोहर मामले में जस्टिस चंद्रचूड़ ने लिखा था कि सेक्शन 377 "पुराना औपनिवेशक क़ानून" था, जो समानता अभिव्यक्ति और जीवन के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन था।

सितंबर 2022 में समलैंगिकता पर एक भाषण देते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था, "समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने भर से समानता नहीं आ जाएगी, इसे घरों तक, काम करने की जगहों तक और सार्वजनिक जगहों तक ले जाना होगा।"

इन फैसलों के अलावा जस्टिस चंद्रचूड़ ने रोमिला थापर मामले में भीमा कोरेगांव में कथित रूप से हिंसा भड़काने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ एक आपराधिक साजिश में भाग लेने के लिए पाँच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के संबंध में बेंच के एसआईटी नहीं बनाने के फ़ैसले पर अहसमति जताई थी। तब जस्टिस चंद्रचूड़ ने इससे अलग राय जताते हुए आधार को असंवैधानिक क़रार दिया था। असहमत रहने वालों पर राष्ट्रविरोधी या लोकतंत्र विरोधी होने का लेबल लगाने को भी उन्होंने संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए प्रतिबद्धता और लोकतंत्र की तरक़्क़ी की मूल भावना पर हमला बताया था।

गौरतलब है कि न्यायिक पक्ष पर चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ के समक्ष सुनवाई के लिए कुछ हाई-प्रोफाइल मामले हैं, जबकि प्रशासनिक स्तर पर उनके सामने अपने कार्यकाल के दौरान उत्पन्न होने वाली 18 रिक्तियों को भरने और हाई कोर्टों में न्यायाधीशों के स्वीकृत पदों और जजों की मौजूदा संख्या के बीच व्यापक अंतर को पाटने की चुनौती होगी। इसके अलावा महिला अधिकारों से जुड़ा सबसे महत्वपूर्ण मैरिटल रेप का मामला भी है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट में पिछले 6 वर्षों में, जस्टिस चंद्रचूड़ ने जितने ऐतिहासिक निर्णय दिए हैं उनसे जनता को एक सकारात्मक उम्मीद बंधी है और इसलिए कई लोगों खासकर महिला अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने वालों की नज़र में वो एक उम्मीद की किरण भी हैं।

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