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जब सार्वजनिक हित के रास्ते में बाधा बनती आस्था!

अगर हम अपने ही हालिया इतिहास के पन्नों को पलटें तो हमें देश के अलग-अलग भागों से ऐसी कई मिसालें मिल सकती हैं कि किस तरह लोगों ने आपसी सूझबूझ से आस्था के सवाल को सार्वजनिक हित के मातहत करने में संकोच नहीं किया।
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फ़ोटो साभार : मातृभूमि इंग्लिश

कोविड काल की  प्रचंड त्रासदी के बीच जिसे एक छोटी सी उम्मीद की किरण के तौर पर रेखांकित किया जा सकता है, वह है आस्था और सार्वजनिक हित के बीच द्वंद की स्थिति को लेकर बढ़ता एहसास और समाज की मौजूदा समस्याओं के लिए विज्ञान के प्रति अधिक स्वीकार्यता।

अधिकतर लोग इस बात को भूल भी गए होंगे कि किस तरह कोविड की प्रथम लहर के दौरान मक्का मदीना के पवित्र स्थानों से लेकर, येरूशलेम के पवित्र स्थानों तक  या इधर काशी के विश्वनाथ मंदिर से लेकर पड़ोसी मुल्कों में बुद्ध धर्म के पवित्र स्थानों पर एक साथ ताले लगे थे। लोग समझ रहे थे कि सार्वजनिक हित और आस्था के बीच हमें सार्वजनिक हित को ही वरीयता देनी चाहिए।

कुछ वक्त़ पहले केरल में यही मसला उपस्थित हुआ जब राष्ट्रीय राजमार्ग एनएच 66 के विस्तारीकरण की बात चली और क्षेत्र के लोगों ने इस प्रस्ताव का इस आधार पर विरोध किया कि तयशुदा मार्ग पर निर्माण आगे बढ़ेगा तो रास्ते में पड़नेवाली दो मस्जिदों और दो मंदिरों को हटाना पड़ेगा या पुनर्स्थापित करना पड़ेगा।

थाजुथाला का उमयानाल्लूर गांव या बगल के कोल्लम जिले के कुछ गांव के निवासियों ने इस विरोध में पहल ली और केरल उच्च न्यायालय के सामने कई याचिकाएं डालीं। “बालकृष्ण पिल्ले बनाम भारत सरकार” मामला निश्चित ही पेचीदा था और एक ऐसे राज्य में जहां सभी समुदायों के लोग ठीक-ठाक सानुपातिक में रहते हैं, वहां किसी भी तरह की जल्दबाजी विवाद को गलत शक्ल भी दे सकती थी। मामला हिंसक भी हो सकता था। इस जटिल मामले को उच्च अदालत की एक सदस्यीय पीठ न्यायाधीश पी वी कुंजीक्रष्णन के सामने पेश किया गया।

काबिलेगौर बात थी कि संवैधानिक सिद्धांतों पर अड़िग रहते हुए न्यायाधीश महोदय ने इन तमाम याचिकाओं को सिरे से खारिज किया और नागरिकों से आह्वान किया कि उन्हें अपनी छोटी-छोटी दिक्कतों से ऊपर उठना चाहिए क्योंकि देश को चौड़े राष्टीय राजमार्गों की आवश्यकता है, जिसे हर कोई आसानी से इस्तेमाल कर सकता है। अदालत ने इस बात पर भी जोर दिया कि वह हर ऐसे मसले में दखलंदाजी नहीं दे सकती जब तक उनमें स्पष्ट तौर पर गैरकानूनी  या दुर्भावनापूर्ण तरीके से उठाए गए कदम शामिल नहीं हों।

इतना ही नहीं, वे सभी लोग जो आस्थावान हैं, उन्हें न्यायाधीश महोदय ने यह कह कर भी समझाया कि “ईश्वर हमें तथा याचिकाकर्ताओं, सरकार के प्रतिनिधियों या इस फैसले के लेखक को सभी को माफ कर देगा यदि राष्ट्रीय राजमार्ग के विकास के दौरान धार्मिक संस्थान प्रभावित होते हैं।’’

निश्चित ही अदालत के इस फैसले से प्रशासन के स्तर पर राहत की सांस देखी जा सकती है, लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि एक ऐसे वातावरण में जहां धार्मिकता के विस्फोट से संतुप्त हो, सार्वजनिक हित के ऐसे कई काम अनावश्यक विवादों में उलझ जाते हैं।

वैसे कई बार इन विवादों के बीच से ही एक नयी जमीन तोड़ने का उदाहरण सामने आता है।

दो साल से कुछ वक्त़ पहले लखनउ-झांसी हाईवे के निर्माण में इसी तरह एक नयी नज़ीर कायम की गयी। आपसी सहयोग और सदभाव का परिचय देते हुए जालौन के दोनों समुदाय के लोगों ने दो मंदिरों, एक मस्जिद और तीन मज़ारों को पुनर्स्थापित किया।

दरअसल, इन प्रार्थनास्थलों के चलते बीते 14 सालों से हाईवे निर्माण का काम पूरा नहीं हो सका था और रोज इस व्यस्त हाईवे पर जाम लगता था, जो तीन-तीन घंटे चलता रहता था। आलम यह था कि यातायात के इस अवरोध के चलते हुई दुर्घटनाओं का परिणाम यह भी हुआ था कि लगभग 130 लोग इसमें हताहत हुए थे। 

मालूम हो कि जालौन के जिलाधीश एवं पुलिस अधीक्षक ने पहल कर के दोनों समुदायों के बीच बातचीत चलायी थी। यह सिलसिला छह माह तक चला था; अंततः दोनों समुदायों की रजामन्दी से यह निर्णय लिया गया। इतना ही नहीं, जिस दिन इन प्रार्थनास्थलों को वहां से हटाया गया, उसी दिन वैकल्पिक स्थानों पर उनका पुनर्निमाण भी शुरू किया गया।

उसी साल की शुरूआत में मुजफफरनगर के नेशनल हाइवे पर संधावली गांव के पास इसी किस्म का एक अन्य प्रयास हुआ था। दरअसल, वहां रेलवेलाइन पर पुल निर्माण का काम अधूरा पड़ा था, जिसके चलते न केवल पैदल यात्रियों को भारी असुविधा का सामना करना पड़ता था, बल्कि उससे जान भी जोखिम में रहती थी। पुल के नीचे स्थित अल्पसंख्यक समुदाय के प्रार्थनास्थल और शिक्षा संस्थान के चलते काम पूरा नहीं हो पा रहा था। वहां इसी तरह प्रशासन ने स्थानीय लोगों से वार्तालाप कर के इसका हल निकाला तथा प्रशासन, स्थानीय सांसद एवं मुस्लिम समुदाय के तमाम लोगों की मौजूदगी में उपरोक्त मस्जिद और मदरसे को स्थानांतरित करने पर अमल हुआ।

अगर बात चल पड़ी है, तो हम मुंबई के उपनगर माहिम में स्थानीय निवासियों और नगर प्रशासकों के बीच अभूतपूर्व सहयोग की मिसाल पर गौर कर सकते हैं, जब इलाके में सड़कों पर किनारे बने आठ प्रार्थनास्थलों को हटा दिया गया या स्थानांतरित कर दिया गया था क्योंकि वह यातायात में या पैदल यात्रियों की आवाजाही में बाधा पैदा कर रहे थे। इनमें देश के तीन अग्रणी धर्मों से जुड़े प्रार्थनास्थल शामिल थे। विक्टोरिया चर्च के बाहर बना ऐतिहासिक क्रास, मच्छिमार कालोनी का मंदिर और एक मुस्लिम संत की मज़ार आदि शामिल थे। उच्च अदालत के आदेश पर सम्पन्न की गयी इस कार्रवाई को अंजाम देने के लिए अधिकारियों ने इन प्रार्थनास्थलों के ट्रस्टियों से कई बैठकें की और उन्हें बताया कि इनका प्रतिस्थापन किस तरह से जनहित में है। 

इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि माहिम के इस पुनर्स्थापन के एक माह पहले बगल के बांद्रा में स्थिति तनावपूर्ण हो गई थी, जब ब्रहन्मुंबई कॉर्पोरेशन की तरफ से व्यस्त रास्ते पर बने क्रॉस को अदालती आदेश के चलते हटा दिया था। इसके लिए अधिकारियों द्वारा दिखायी जल्दबाजी को जिम्मेदार ठहराया गया था। 

अब जबकि हम 21 वीं सदी की तीसरी दहाई में प्रवेश कर रहे हैं, यह बात शीशे की तरह साफ है कि न केवल उमालनाल्लूर गांव या कोल्लम जिले के गांव या जालौन संधावली या मुंबई के माहिम की घटनाओं को हमें अपवाद समझना चाहिए।

दरअसल यह बात काफी महत्वपूर्ण है कि अधिकतर लोगों को यह बात आसानी से नहीं पचती है कि सार्वजनिक रास्तों/गुजरगाहों को धार्मिक मेलजोल के ठिकानों के रूप में तब्दील नहीं करना चाहिए क्योंकि एक बहुआस्था वाले समाज में इसके चलते कभी कभी भी तनाव की स्थिति निर्मित हो सकती है। उनके लिए यह बात भी समझ से परे होती है कि किसी खास अवसरों पर ऐसे प्रार्थनास्थलों पर लगने वाली लोगों की लंबी कतारें आने-जाने वाले रास्तों को अधिक संकरा कर देती हैं।

वैसे अगर हम अपने ही हालिया इतिहास के पन्नों को पलटें तो हमें देश के अलग-अलग भागों से ऐसी कई मिसालें मिल सकती हैं कि किस तरह लोगों ने आपसी सूझबूझ से आस्था के सवाल को सार्वजनिक हित के मातहत करने में संकोच नहीं किया।

यदि हम मध्य भारत के चर्चित शहर जबलपुर को लें, जहां मुल्क के किसी भी अन्य शहर की तरह विभिन्न धर्मों के अनुयायी रहते हैं, वहां आज से एक दशक पहले 168 धार्मिक स्थल प्रतिस्थापित किए गए थे। क्या यह बात आज के वातावरण में किसी को आसानी से पच सकती है कि शहर के यातायात एवं सामाजिक जीवन को तनावमुक्त बनाये रखने के लिए सभी आस्थाओं से सम्बधितों ने इसके लिए मिल-जुल कर काम किया और एक तरह से शेष मुल्क के सामने ‘साम्प्रदायिक सद्भाव की नयी मिसाल पेश की।

गौरतलब है कि शहर जबलपुर की इस नायाब पहल के पहले ‘मन्दिरों के शहर’ कहे जाने वाले दक्षिण के मदुराई ने भी कुछ साल़ पहले अपने यहां इसी किस्म की कार्रवाई की थी। प्राचीन तमिल साहित्य में भी विशेष स्थान पाने वाला मदुराई में, शहर की नगरपालिका की अगुआई में, अनाधिकृत ढंग से बनाये गये 250 से अधिक मन्दिर, दो चर्चों एवं एक दरगाह को हटाया गया। इनकी मौजूदगी के चलते आम नागरिकों को बेहद असुविधा का सामना करना पड़ रहा था। इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि इन अवैध धार्मिक स्थलों को हटाने की यह कार्रवाई नगरपालिका द्वारा शहर में बनाये गये अवैध निर्माणों को हटाने के अन्तर्गत की गयी थी, जिसके तहत समूचे शहर में लगभग छह सौ ऐसे निर्माण गिराये गये थे।

रेखांकित करने वाली बात है कि भले ऐसे प्रयास बहुत कम हों, लेकिन जब आस्था की दुहाई देते हुए व्यापक जनहित के प्रस्तावों की मुखालिफत करना भारत जैसे समाज में आम होता जा रहा है, वहां ऐसी कोशिशों का होना भी बहुत कुछ कहता है।

जालौन, मुजफफरनगर या माहिम के यह अनुभव मुंबई के ही एक अन्य हस्तक्षेप की याद ताज़ा करते हैं ,जब आम नागरिकों के संगठित हस्तक्षेप के चलते एक दो नहीं बल्कि एक हजार से अधिक अवैध प्रार्थनास्थलों को वहां प्रशासन ने हटा दिया था। दरअसल यह सिलसिला तब शुरू हुआ था जब एक सामाजिक कार्यकर्ता (श्री भगवान रैयानी) द्वारा वर्ष 2002 में इस मुद्दे पर एक जनहित याचिका दायर की। समूचे शहर में अवैध प्रार्थनास्थलों की लगातार बढ़ती जा रही तादाद की परिघटना से चिन्तित होकर— जिनके चलते आम जनता को विभिन्न किस्म की असुविधाओं का सामना करना पड़ रहा था— यह याचिका दायर की गयी थी। एक साल के अन्दर ही बम्बई उच्च अदालत ने इस मामले में अपना फैसला सुनाते हुए बृहन्मुम्बई म्युनिसिपल कार्पोरेशन के आला अधिकारियों को निर्देश दिया कि वह शहर भर में फैले अवैध मन्दिरों, मस्जिदों, चर्चों या अन्य धार्मिक स्थलों को हटा दें और 12 नवम्बर 2003 तक अपनी ‘एक्शन टेकन रिपोर्ट’ अर्थात कार्रवाई की रिपोर्ट भी अदालत के सामने पेश करें। यह बात अधिक रेखांकित करने वाली थी कि उसी मुंबई में 1992-93 में हजार से अधिक मासूम लोग साम्प्रदायिक दंगों का शिकार हुए थे और जहां ऐसे धार्मिक स्थलों की मौजूदगी तनाव बढ़ाने का सबब बनी थी।

भगवान रैयानी— जो पेशे से बिल्डर हैं और घोषित नास्तिक भी हैं— जो इस मामले में याचिकाकर्ता थे, उन्होंने 2003 में रेडिफ.कॉम  पर दिए अपने एक साक्षात्कार में कहा, ‘‘मान लीजिए कि मैं हिंदू हूं और एक गैरकानूनी मंदिर का निर्माण करता हूं, तो वह आने-जाने वाले तमाम लोगों को— जिनमें अलग अलग आस्थाओं के लोग होंगे— प्रभावित करेगा। यही बात अन्य धर्मियों पर भी लागू होती है। अगर वह किसी अवैध मस्जिद या चर्च का निर्माण करते हैं, तो यह अन्य धर्मियों को भी प्रभावित करेगा।’’ उनका कहना था कि फिर ऐसी स्थितियों में समाज में सदभाव कैसे कायम रहेगा। दरअसल ‘‘समाज को मदद पहुंचाने के लिए मैंने यह कदम उठाया है।’’

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