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2022 तक सबके लिए आवास: हक़ीक़त कुछ ओर बयां करती है

ग्रामीण घरों के लक्ष्य का लगभग एक तिहाई और शहरी लक्ष्य का आधा अभी पूरा किया जाना बाक़ी है।
pmay

फ़ोटो साभार: pmay-urban.gov.in

वर्षों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार अपने जिन पसंदीदा वादों को दोहराते रहे हैं उनमें से एक यह था कि भारत की आज़ादी के 75 वें वर्ष तक यानी 2022 तक सभी भारतीयों के पास अपना घर होगा। 2014 के आम चुनाव में सत्ता में आने से पहले भी उन्होंने इसका वादा किया था और वर्षों से समय-समय पर इस पर ज़ोर दिया जाता रहा है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए, भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने अधिक धन और अधिक राजनीतिक समर्थन के साथ पहले से मौजूद इंदिरा आवास योजना का एक नया संस्करण शुरू किया था। इसे दो भागों यानी ग्रामीण और शहरी के साथ प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाई) के रूप में नया नाम दिया गया।

योजना की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, 6 जनवरी, 2023 तक ग्रामीण क्षेत्रों में 2.94 करोड़ घरों के निर्माण के लक्ष्य में से 2.1 करोड़ का निर्माण किया जा चुका है। यह लक्ष्य का लगभग 72 प्रतिशत है जबकि 84 लाख घरों के लक्ष्य को पूरा करना अभी भी बाक़ी है। (नीचे दिया चार्ट देखें)

शहरी क्षेत्रों में स्थिति और भी ख़राब है जहां लगभग 51 प्रतिशत लक्ष्य ही हासिल किया गया है। 12 दिसंबर, 2022 को राज्यसभा में सरकार द्वारा दिए गए एक जवाब के अनुसार, लगभग 1.25 करोड़ घरों के निर्माण के स्वीकृत लक्ष्य में से केवल 61.2 लाख घर ही वास्तव में पूरे किए गए हैं। यानी 59 लाख घरों का निर्माण होना अभी भी बाकी है। (नीचे दिया चार्ट देखें)


यह जानते हुए कि यह योजना वक़्त से पीछे चल रही है और लक्ष्य पूरा होता नज़र नहीं आ रहा है, अब केंद्र सरकार ने इसे हासिल करने का समय 2024 तक बढ़ा दिया है। पीएमएवाई-जी योजना को दिसंबर 2021 में कैबिनेट के एक फ़ैसले द्वारा 2024 के मार्च तक बढ़ा दिया गया जबकि फरवरी 2022 में कैबिनेट की बैठक में पीएमएवाई-यू को दिसंबर 2024 तक बढ़ा दिया गया। ऐसा लगता है कि 2022 तक सभी ज़रूरतमंद परिवारों को घर उपलब्ध कराने के वादे पर पानी फिर गया है।

ग्रामीण विकास मंत्रालय ने पीएमएवाई-जी के तहत मैदानी इलाक़ों के लिए 1.2 लाख रुपये और पहाड़ी क्षेत्रों के लिए 1.3 लाख रुपये के फंडिंग का प्रावधान किया है, जिसमें लाभार्थी का श्रम योगदान भी इसमें शामिल है (जिसमें ग्रामीण नौकरी की गारंटी योजना के माध्यम से लगभग 90 रुपये की दैनिक मज़दूरी का योगदान शामिल किया गया है)। उत्तर-पूर्व और पहाड़ी इलाक़ों को छोड़कर, जहां केंद्र और राज्य का अनुपात 90:10 का है, वहीं केंद्र सरकार और राज्य सरकारें 60:40 के अनुपात से व्यय को साझा करती हैं। पीएमएवाई-यू का प्रबंधन आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय द्वारा किया जाता है और इसे अलग-अलग डिज़ाइन किया गया है, जिसमें चार कार्यक्षेत्र हैं, लाभार्थी के नेतृत्व में निर्माण (बीएलसी), साझेदारी में किफ़ायती आवास (एएचपी), इन-सीटू स्लम पुनर्विकास (आईएसएसआर) और क्रेडिट लिंक्ड सब्सिडी योजना (सीएलएसएस)। इस योजना में भागीदारी के तहत निजी क्षेत्र की निर्माण कंपनियों को शामिल किया गया है।

2011 के आंकड़ों पर आधारित लक्ष्य

सभी के लिए घर उपलब्ध कराने में वास्तविक कमी ऊपर उद्धृत आधिकारिक आंकड़ों से बहुत अधिक है क्योंकि आवास की ज़रूरत का आकलन 2011 की सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना में पाए गए आवास-अभाव के आंकड़ों के आधार पर किया गया था। जो लोग बेघर थे या एक या दो कच्ची-दीवारों वाले या कच्ची छतों वाले घरों में रहते थे, उन्हें उचित रहने वाले योग्य घरों की ज़रूरत के रूप में गिना गया था और इसलिए पीएमएवाई-जी का काम उन्हें पक्का आवास देने पर विचार करना था। यह प्रक्रिया ग्राम सभाओं के माध्यम से होती है, जिन्हें लाभार्थियों के नामों की पुष्टि और अनुमति देनी होती है।

जबकि कई लोग ख़ुद के प्रयासों से, 2011 के बाद से अपनी आवास की स्थिति में सुधार कर चुके होंगे, इसलिए जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ बड़ी संख्या में नए घर भी बन गए होंगे। कई परिवार घोर ग़रीबी में भी होंगे और उनके घरों की हालत ख़राब हो गई होगी। यह संतुलन वास्तविक रूप से बेहतर आवास की ज़रूरत वाली बड़ी संख्या की ओर स्थानांतरित हो गया होता। हालांकि, यह योजना इन बदलावों पर पूरी तरह नज़र में नहीं रख पाएगी।

इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस (ICRIER) के एक अध्ययन के अनुसार, शहरी आवास की कमी 2012 में 1.88 करोड़ से 54 प्रतिशत से बढ़कर 2018 में 2.9 करोड़ हो गई थी।

इसके अलावा, भ्रष्टाचार और आमतौर पर की जाने वाली उपेक्षा के अनगिनत उदाहरण हैं क्योंकि किसी को भी आवास की प्रतीक्षा सूची में शामिल करने का पूरा निर्णय ग्राम प्रधान पर निर्भर करता है। पश्चिम बंगाल में भ्रष्टाचार का हाल में हुआ खुलासा इस तरह के भेदभाव और वास्तव में ज़रूरतमंदों की उपेक्षा का एक उदाहरण है।

संक्षेप में कहा जाए तो, ज़रूरतमंद परिवारों की संख्या जो अभी भी बेहतर घरों के लिए तरस रही है, उसके आधिकारिक संख्या में अधिक होने की संभावना है।

यहां तक कि भाजपा शासित 'डबल इंजन' वाले राज्य भी पीछे हैं

कई राज्य इस योजना को लागू करने में पीछे रहे हैं, यहां तक कि भाजपा शासित राज्य भी इन क़तारों में शामिल हैं। आधिकारिक पीएमएवाई-जी वेबसाइट पर उपलब्ध नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, अल्प-विकसित उत्तर पूर्वी राज्य, जिन्हें केंद्र सरकार से 90 प्रतिशत धन हासिल होता है और जहां ज़्यादातर भाजपा गठबंधनों की सरकारें हैं, वे विशेष रूप से घर उपलब्ध कराने में पिछड़ रहे हैं।

आठ उत्तर-पूर्वी राज्यों में से, सिक्किम में 78 प्रतिशत और त्रिपुरा 67 प्रतिशत लक्ष्य हासिल करने के साथ बेहतर प्रदर्शन करने वाले राज्य हैं। अन्य छह उत्तर-पूर्व राज्यों के लक्ष्यों की वास्तविक स्थिति कुछ इस प्रकार है: नागालैंड (21 प्रतिशत), अरुणाचल प्रदेश (26.4 प्रतिशत), मिज़ोरम (30 प्रतिशत), असम (34 प्रतिशत), मणिपुर (39.4 प्रतिशत) और मेघालय (43 प्रतिशत)।

बड़े और प्रमुख राज्यों में, तेलंगाना इस योजना को बिल्कुल भी लागू नहीं कर रहा है, जबकि आंध्र प्रदेश ने इस लक्ष्य का केवल 18.2 प्रतिशत पूरा किया है, गोवा केवल 8 प्रतिशत ही पूरा कर पाया है। छत्तीसगढ़, हरियाणा, ओडिशा, गुजरात, महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाडु, पंजाब, उत्तराखंड आदि सभी लगभग 72 प्रतिशत पूरा करने की अखिल भारतीय औसत से नीचे हैं।

अच्छा प्रदर्शन करने वाले कुछ राज्यों में बिहार, राजस्थान, झारखंड, मध्यप्रदेश (सभी 80 प्रतिशत से ऊपर), और उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और पश्चिम बंगाल (70-80 प्रतिशत) हैं। स्पष्ट रूप से, योजना का कार्यान्वयन अव्यवस्थित और अनियमित है और लक्ष्य से बहुत नीचे हैं।

हमेशा केंद्र सरकार की ओर से यह कहे जाने की प्रवृत्ति दिखाई दी है कि राज्यों की अक्षमता के कारण काम धीमी गति से चल रहा है। लेकिन ऐसा लगता नहीं, क्योंकि "डबल इंजन" की कई सरकारें - जिनमें भाजपा का शासन है - भी इस काम में पिछड़ रही हैं।

हक़ीक़त में, कई राज्य सरकारों की अपनी राज्य स्तरीय योजनाएं भी हैं जो काफ़ी अच्छी तरह से काम कर रही हैं और ये समानांतर रूप से घर उपलब्ध कराती रही हैं। केरल जैसे कुछ राज्यों में, जिन परिवारों को बेहतर घरों की आवश्यकता थी, उनकी संख्या बहुत कम थी, जो केवल 42,212 से कुछ अधिक थी। इनमें से 25,000 से अधिक घर बनाए गए थे। इसलिए, हासिल लक्ष्य का अनुपात ज़मीनी हालात के लिए ज़िम्मेदार नहीं हो सकता है।

किसी विशेष राज्य के लिए कुल राशि का शेष 40 प्रतिशत धनराशि प्रदान कराने के केंद्र सरकार के दबाव ने भी राज्य सरकारों को, विशेष रूप से महामारी के दौरान और आम तौर पर जीएसटी या वस्तु व सेवा कर के कारण राजस्व से वंचित होने के बाद, गंभीर आर्थिक तनाव में छोड़ दिया था। ज़मीनी स्तर पर कार्यान्वयन एजेंसी होने के नाते, राज्य सरकारों को भूमि संबंधी विवादों, इलेक्ट्रॉनिक लेन-देन की समस्याओं और फंड ट्रांसफ़र में देरी का भी सामना करना पड़ा है।

इन सबका मतलब यह है कि केंद्र सरकार जिस बहुप्रचारित कार्यकुशलता और दृढ़ संकल्प का अक्सर दावा करती है, वह वास्तव में एक बहुत लोकप्रिय योजना होने के बावजूद भी प्रभावी और व्यावहारिक नहीं रही है। इससे उपेक्षा और अभाव के संबंध में व्यापक असंतोष पैदा हुआ है।

(डेटा संकलन में पीयूष शर्मा ने योगदान दिया है।)

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

Housing For All by 2022? Here’s The Status

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