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सामाजिक कार्यकर्ताओं पर फर्जी मुक़दमे और दोषियों से दोस्ती

गुजरात हाई कोर्ट द्वारा तीत्सा और जावेद आनंद की जमानत याचिका ख़ारिज करना न्याय की प्रक्रिया के साथ खिलवाड़ है।  हालाकि सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात हाई कोर्ट के आदेश पर 19 फरवरी तक रोक लगा दी है और उम्मीद है कि वहाँ उन्हें राहत मिलेगी।

गुजरात पुलिस बदले की भावना से अनेक बार ऐसे झूठे केस लगाते आई है जिसकी वजह से  सुप्रीम कोर्ट को अनेक बार दखल देना पड़ा है। यह केस अलग नहीं है। पुलिस ने उनपर गुलबर्ग ट्रस्ट से अपने निजी कार्यों के लिए रुपयों की हेरा फेरी का आरोप लगाया है। ज्यादा भयावाह है गुजरात हाई कोर्ट का आदेश जिसमे उसने कहा है कि बिना तीस्ता और जावेद को हिरासत में लिए ये जांच आगे नहीं बढाई जा सकती। कोर्ट ने ये आदेश जांच अधिकारी द्वारा दायर किए गए हलफनामे के आधार पर दिया है जबकि तीस्ता और आनंद द्वारा दिए गए जवाब पर कोर्ट ने ध्यान नहीं दिया।

                                                                                                                       

2012 में उच्च न्यायालय ने गुजरात सरकार द्वारा तीस्ता पर 2002 दंगो के पीड़ितों से जबरन उत्खनन के आरोप पर लगाए गए केस को अवैध घोषित कर दिया था। 2005 में भी तीस्ता पर बेस्ट बेकरी केस की मुख्य गवाह ज़हीरा शेख पर दबाव डालने का आरोप था। तब उच्च न्यायालय ने तीस्ता को दोषमुक्त करार दिया साथ ही उसने ज़हीरा को बयान से पलटने का दोषी पाया। 

पुरे देश को पता है कि तीस्ता और उनके जैसे अन्य कार्यकर्ताओं के लगन और संघर्ष के बिना गुजरात दंगो के पीड़ितों को न्याय नहीं मिल पाता। आज भी मोदी गुजरात दंगो  की न्यायिक जांचो से पूरी तरह बरी नहीं हो पाए हैं।  मोदी सरकार की मंत्री माया कोडनानी के अलावा 150 से अधिक लोगो को कोर्ट ने दोषी करार दिया है। और यह तीस्ता और अन्य कार्यकर्ताओं के सक्रीय संघर्ष के बाद ही संभव हो पाया है जो उन्होंने न्यायालयों में लड़ी है। यह भारतीय न्याय पालिका के इतिहास  में पहली बार हुआ है कि सामूहिक हिंसा के आरोपियों को सजा मिली है। इसलिए तीस्ता और जावेद लगातार मोदी सरकार के निशाने पर रहे हैं।

आरोप लगाया गया है कि यात्रा पर हुए खर्चे का भुगतान ट्रस्ट के रुपयों से किया गया है। पर अगर ट्रस्ट के कार्य के लिए यह यात्रा की गई है तो फिर उसकी भरपाई कहाँ से की गई है, यह सवाल ही नहीं उठाना चाहिए। इस तरह के बेबुनियाद केस किसी मकसद को हासिल करने के लिए बनाए गए हैं और वह है मोदी सरकार के खिलाफ उठ रही आवाज़ को दबाना।

इस केस के नापाक इरादे का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गुजरात हाई कोर्ट ने अपना फैसला गुरूवार को सुनाया और कुछ ही घंटो में गुजरात पुलिस तीस्ता के घर के बाहर खड़ी थी। ऐसा लग रहा है जैसे फैसला आने से पहले ही वे इस फैसले के लिए तैयार थे।

गुजरात सरकार के इरादे बिलकुल साफ़ हैं। वह इन दो कार्यकर्ताओं को उलझा के रखना चाहती है ताकि वे दंगे के पीड़ितों को न्याय दिलवाने की लड़ाई को उस वक़्त  आगे न बढ़ा सके जब न्याय पालिका अपने शिकंजे इन आरोपियों पर कस रही है।

अनेक राजनैतिक पार्टियाँ, मीडिया और सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता और जावेद के पक्ष में आवाज़ उठा रहे हैं।  मोदी सरकार की बदले की भावना उनके रोज के कार्य में साफ़ झलक रही है। दिल्ली चुनाव के तुरंत बाद ही वित्त मंत्रालय ने आप और कांग्रेस के चुनाव खर्च पर जांच बैठा दी जबकि खुद भाजपा ने कही अधिक रुपए चुनाव प्रचार पर खर्च किए हैं। यह साफ़ है कि हिटलरशाही इस सरकार के हर पुर्जे में बसी हुई है। यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि बदले की भावना से उठाए गए किसी भी कदम का पुरजोर विरोध हो और ऐसी राजनैतिक पार्टियों को चुनावों में मुहतोड़ जवाब दिया जाए।

 

(अनुवाद- प्रांजल)

 

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख मे व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारो को नहीं दर्शाते ।

 

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