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कोरोना के बाद भारत के सामने होगा भयावह रोज़गार संकट, क्या भारत तैयार है?

जब लॉकडाउन हट जाएगा, तो कर्मचारियों के सामने नए रोज़गार में कठिन शर्तों पर काम करने का संकट होगा। उनकी जिंदगी के साथ-साथ लोगों के रोज़गार को भी बचाना होगा।
कोरोना वायरस

एक सदी पहले आई महामंदी के बाद आज हम सबसे बड़ी आर्थिक मंदी का सामना कर रहे हैं। यह कोरोना महामारी की वजह से पैदा हुई है। IMF से जुड़ी गीता गोपीनाथ के मुताबिक़ 2020-21 में 9 ट्रिलियन डॉलर का वैश्विक नुकसान होगा। भूख और भुखमरी का अंदेशा अब कोरी-कल्पना नहीं है। महामारी अब तक दुनिया भर में एक लाख से ज़्यादा लोगों की जान ले चुकी है। यह सिलसिला बदस्तूर जारी है।

लॉकडाउन ने आर्थिक गतिविधियों को एकदम से बंद होने पर मजबूर कर दिया है। इससे लाखों लोग मुश्किल में फंस गए हैं। वेतनभोगी कर्मचारियों, फ्रीलांस काम करने वालों, निजी स्कूल के शिक्षकों से लेकर दैनिक मज़दूर, प्रवासी मज़दूर, रेहड़ी लगाने वालों और घरो में काम करने वाले लोगों की आजीविका पर गहरा संकट आ गया है।

दुर्भाग्य से अब हमारे हिस्से में बस अनिश्चित्ता है। भारत जैसे देश में जहां 90 फ़ीसदी श्रमशक्ति अनौपचारिक क्षेत्र में काम करती है, वहां ज़्यादा जिंदगियां दांव पर लगी हैं।

बढ़ती बेरोज़गारी

NSSO के 2017-18 के आंकड़ों के मुताबिक़, बेरोज़गारी दर 6.1 फ़ीसदी के चिंताजनक स्तर तक पहुंच चुकी थी, यह पिछले 45 साल में सबसे ऊंची दर है। नोटबंदी और जीएसटी के दोहरे झटके ने विकास की रफ़्तार को थामने औऱ रोज़गारों को बर्बाद करने में जो किरदार अदा किया है, उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। एक तरफ अर्थव्यवस्था बहुत बुरी हालत में है, हम अब भी नोटबंदी और जीएसटी के झटकों से नहीं उबर पाए हैं। तो दूसरी तरफ कोरोना महामारी ने अर्थव्यवस्था पर अंतिम प्रहार किया है और अब यह तार-तार होने की कगार पर है।

वित्तवर्ष 2019-20 की अंतिम तिमाही की विकास दर नकारात्मक रहने की संभावना है। सबसे ज़्यादा चिंता लॉकडाउन (24 मार्च) के बाद बड़े स्तर पर नौकरियों के जाने की है। जैसा नीचे दिखाया है, बेरोज़गारी दर लॉकडाउन में हर गुज़रते दिन के साथ बढ़ रही है।

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CMIE के अनुमान के मुताबिक़, 15 मार्च 2020 को खत्म हुए हफ़्ते में बेरोज़गारी दर 6.7 फ़ीसदी रही थी। यह लॉकडाउन के पहले की बात है। लॉकडाउन के पहले हफ़्ते में ही बेरोज़गारी दर 23.8 फ़ीसदी पहुंच गई। दूसरे हफ़्ते इसमें थोड़ी सी कमी आई। लेकिन तीसरे हफ़्ते में यह वापिस 24 फ़ीसदी पर पहुंच गई।

चौथे हफ़्ते भी बेरोज़गारी दर में उछाल जारी रहा। 19 अप्रैल को यह दर 26.2 फ़ीसदी के बेहद ऊंचे स्तर पर पहुंच गई थी। सीधे शब्दों में कहें तो श्रम शक्ति के चार सदस्यों में से एक पास अब काम नहीं है। स्वाभाविक है कि इनमें से बड़ी संख्या अनौपाचारिक क्षेत्रों में काम करने वालों की है। इन्हें नौकरी और सामाजिक सुरक्षा, दोनों ही नसीब नहीं होतीं।

बेरोज़गारी दर शहरी क्षेत्रों में बेहद तेजी से बढ़ी है। लॉकडाउन के पहले दो हफ़्तों में ही यह दर 30-31 फ़ीसदी के आंकड़े को छू चुकी थी। चौथे हफ़्ते के अंत तक यह 25 फ़ीसदी हो गई। ग्रामीण क्षेत्रों में भी बेरोज़गारी बढ़ रही है। दूसरे हफ़्ते में 27 फ़ीसदी का आंकड़ा छूने के बाद यह अगले 15 दिनों में लगातार बढ़ती रही।

सामान्य व्यवहार के उलट, ग्रामीण बेरोज़गारी शहरी क्षेत्रों की तुलना में ज़्यादा तेजी से बढ़ रही है। इसकी मुख्य वजह रबी के मौसम में किसानों का फसल न काट पाना और दूसरी गतिविधियां करने की अक्षमता हो सकती है। 20 अप्रैल के बाद लॉकडाउन में दी गई आंशिक छूट और कोरोना महामारी के संक्रमण से बचे इलाकों में कृषिकार्य करने की अनुमति देने के बावजूद, यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था कितने दिन बाद वापिस पटरी पर लौटेगी।

अनौपचारिक क्षेत्र

ILO का अनुमान है कि भारत में लॉकडाउन के चलते अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले 40 करोड़ लोग और गरीबी के अंधेरे में खो जाएंगे। प्रवासी दैनिक मज़दूर, अनौपचारिक श्रमशक्ति का एक बड़ा हिस्सा हैं, इन लोगों की काम करने और रहने की स्थितियां सबसे बदतर हैं। 'जन साहस सोशल डिवेल्पमेंट सोसायटी' द्वारा किए गए एक सर्वे के मुताबिक़, 80 फ़ीसदी से ज़्यादा कर्मचारियों के पास इतना ही खाद्यान्न है, जो एक महीने से भी कम वक़्त तक उनका भरण-पोषण कर सकता है।

ऊपर से 60 फ़ीसदी प्रवासी मज़दूरों को कोरोना राहत योजनाओं के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है। लॉकडाउन के बढ़ने, बचत के खत्म होने, उधार में लगातार बढ़ोत्तरी होने और आय का कोई साधन न होने से रेहड़ी लगाने वालों, घरेलू कर्मचारियों और घर में रहकर काम करने वालों के लिए भी प्रवासी मज़दूरों की तरह स्थितियां भयावह हो गई हैं। जैसे-जैसे अनिश्चित्ता बढ़ती जा रही है, उनकी राहत की उम्मीदें भी धुंधली होती जा रही हैं।

अनौपचारिकता का बना रहना पूंजीवाद के जिंदा रहने के लिए जरूरी है। लॉकडाउन खत्म होने के बाद जब उत्पादन दोबारा शुरू होगा, तो तय है कि नई भर्तियों का ज़्यादा से ज़्यादा शोषण कर पुराने घाटे की भरपाई करने की कोशिश की जाएगी। लाखों लोगों की नौकरियां जाने के बाद श्रमशक्ति की रिजर्व फोर्स काफ़ी बढ़ जाएगी, वह लोग कम पैसे औऱ ज़्यादा वक़्त तक काम करने के लिए, साथ में श्रमशक्ति के ज़्यादा अनौपचारिक होने के लिए तैयार रहेंगे। 

छंटनी और वेतन में कमी

2008 में वैश्विक मंदी के दौरान चार महीनों में करीब 6 लाख भारतीयों की नौकरी चली गई थी। 2017 में इतनी ही संख्या में इंजीनियर्स को आईटी सेक्टर से निकाल दिया गया था।

लेकिन यह ध्यान में रखना होगा कि उस संकट से वित्त क्षेत्र और IT सेक्टर ही प्रभावित हुआ था, दूसरों पर कम असर पड़ा था। लेकिन मौजूदा हालात बहुत ज़्यादा खराब हैं।

औपचारिक क्षेत्र भी इस रोज़गार संकट से अछूता नहीं रहेगा।हांलाकि कुछ संगठन घर से काम करने की सुविधा के ज़रिए खुद को बरकरार रखे हुए हैं, लेकिन पूरे उद्योगों में राजस्व का बहुत नुकसान हुआ है। शटडॉउन के चलते नए लोगों से भर्ती के ऑफर वापिस ले लिए गए, मौजूदा स्टॉफ की छटनी कर दी गई और घर से काम करने के दौर में 25 फ़ीसदी से ज़्यादा की वेतन कटौती की जा रही हैं। सेवा क्षेत्र के कुछ उद्योगों जैसे पर्यटन, नागरिक उड्डयन (एविएशन) और हॉस्पिटेलिटी सेक्टर में काम पूरी तरह ठप हो चुका है। इसकी झलक हमें गोएयर और स्पाइसजेट के कुछ इंजीनियर्स को तीन मई तक बिना वेतन की छुट्टी पर भेजने के फ़ैसले में दिखती है।

एक दूसरा उदाहरण इंडियन एक्सप्रेस का है। लॉकडाउन में विज्ञापन से कम होते राजस्व और गिरती बिक्री के चलते अख़बार ने अपने कर्मचारियों के वेतन में कटौती की है। दूसरी तरफ अख़बारों के घरों, ऑफ़िस, लाइब्रेरी औऱ दूसरे पाठकों तक न पहुंचने के चलते वितरकों और वेंडर्स तात्कालिक तौर पर बेरोज़गार हो गए हैं। फिलहाल यह भी तय नहीं है कि इनकी बेरोज़गारी कितनी लंबी चलेगी। वेंडर्स को कोई सामाजिक या कानूनी सुरक्षा भी नहीं होती, उन्हें किसी भी तरह की आय के लिए लॉकडाउन खत्म होने का इंतज़ार करना होगा। 

अनौपचारिक क्षेत्र में बहुत कम पैसे में काम करने वाले कर्मचारी, जिनके पास बहुत कम बचत है, उनपर नौकरियां और आजीविका का साधन खत्म होने का संकट ज़्यादा गंभीर है। जब स्थितियां सामान्य होंगी, तब बेहतर रोज़गार खोजना भी कठिन होगा।

अंत में इतना ही कि अब एक स्पेशल इकनॉमिक टॉस्क फ़ोर्स की जरूरत है, जो अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर ला सके और उस रोज़गार संकट से निपट सके, जो भारत के लाखों लोगों को प्रभावित करने वाला है। मार्च में जिस 1.7 लाख करोड़ रुपये के आर्थिक पैकेज की घोषणा की गई है, वो अपर्याप्त है। अब जरूरत है कि सबसे कमजोर और महामारी से सबसे बुरी तरह से प्रभावित लोगों को तुरंत राहत पहुंचाए जाने की व्यवस्था की जाए, जिसके तहत कुछ बड़े कदम उठाए जाएं। हमें सिर्फ महामारी से ही नहीं, बल्कि उसके बाद बनने वाली परिस्थितियों से भी निपटने का उपाय करना होगा। जिंदगियों के साथ-साथ हमें आजीविका को भी बचाना होगा।

ऐश्वर्या भूटा जेएनयू में छात्र हैं और धनश्री गुरूडू मुंबई आधारित एक अहम नॉन-प्रॉफिट ऑर्गेनाज़ेशन में रिसर्च एसोसिएट हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख नीचे लिंक पर क्लिक कर पढ़ें।

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